SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 42
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ - ३२ - . रहना आवश्यक माना गया है । यही एक ऐसी मूर्ति है जिसपर केश नहीं है और भोलाशकर कायोत्सर्ग मुद्रामें खड़े हैं । पार्वती, नन्दी, कार्तिकेय, शिवगण भी विद्यमान हैं । पद्मासन और खडगासन जैन-मूर्ति विधानशास्त्रकी मौलिक देन है। त्रिपुरीकी बौद्ध व हिन्दू प्रतिमाओंमें ध्यानी मुद्रा व अष्टप्रातिहार्यका क्रमशः अंकन पाया जाता है। जैन मूर्तियोंमें इनका अंकन सोद्देश्य है । तीर्थकरोंकी जीवनीके साथ अष्टप्रातिहार्यका सम्बन्ध है। पर बौद्ध और हिन्दू-धर्ममान्य नेताओंकी मूर्तियोंमें इसका अंकन किसी भी दृष्टिसे उचित नहीं। ज्ञात होता है कलाकारोंने इसे भी अन्य कलोपकरणोंके समान समझकर खोद देते रहे होंगे। अश्रुतपूर्व एक प्रतीक ... इतिहासके मध्यकालमें संत-परम्पराका प्रभाव बहुत बढ़ चुका था । संतसाहित्य और जीवनमें समन्वयवादी भावना मूर्त रूप धारण किये थी। कलात्मक प्रतीक युगका प्रतिनिधित्व करते हैं। मुझे अपनी खोजमें एक प्रतीक ऐसा मिला है जो भारतमें अपने ढंगका प्रथम है । संतोंको समन्वयवादी साधनाका मर्त रूप कलामें व्यक्त करने वाली यह प्रथम कृति है । एक ही प्रस्तर शिलापर जैन, शैव और वैष्णव संस्कृतिके प्रतीक खुदे हुए हैं । शिलाके मध्य भागमें भगवान भोलाशंकर पद्मासन लगाये बैठे हैं, दोनों अोर शेषशायी व बांसुरी लिये विष्णुकी प्रतिमा उत्कीर्णित है। तन्निम्न भागमें दोनों ओर ५ जिन मूर्तियाँ खडगासनस्थ विराजमान हैं । शंकरका पद्मासनमें बैठना और जिनमूर्तिका वैदिक मूर्तियोंके साथ अंकित करना यह जैन प्रभावका प्रमाण है, साथ-साथ समन्वयका कलात्मक प्रतीक भी। अन्वेषक ___यहाँपर मैं कुछ-एक विद्वानोंका परिचय दे रहा हूँ जिन्होंने प्रान्तके इतिहास व पुरातत्त्वपर अांशिक प्रकाश डालकर अपने गौरवकी परम्पराको Aho ! Shrutgyanam
SR No.034202
Book TitleKhandaharo Ka Vaibhav
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKantisagar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1959
Total Pages472
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy