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________________ "मध्यप्रान्तका हिन्दू-पुरातत्त्व' शीर्षक निबन्धमें महाकोसलके पुरा तत्त्वका निर्देश संक्षेपसे किया है। उसमें अधिकतर भागका सम्बन्ध मेरे प्रथम भ्रमणसे है। १९५० फरवरीमें पुनः मुझे महाकोसल के त्रिपुरी, बिलहरी, पनागर और गढ़ा आदि नगर स्थित कलावशेषोंका, न केवल अध्ययन करनेका ही सौभाग्य प्राप्त हुआ, अपितु उन उपेक्षित अरक्षित कलात्मक प्रतीकोंका संग्रह भी करना पड़ा जिनसे एक सुन्दर कलात्मक संग्रहालय बन सकता है। इन अवशेषोंमें जैन एवं वैदिक संस्कृतिसे संबन्धित प्रतीक ही अधिक हैं। दो एक बौद्धावशेष भी सूचनात्मक हैं। प्रस्तुत निबन्धमें मैं अपने संग्रहके कतिपय महत्त्वपूर्ण प्रतीकोंका परिचय देना चाहता हूँ। शीर्षकसे भ्रम हो सकता है कि मैं सम्पूर्ण महाकोसलके शिल्प-स्थापत्य कलाकी गम्भीर आलोचना करते हुए, शिल्पकलाके क्रमिक विकासकी ओर संकेत करूँगा, परन्तु यहाँ मैंने अपना क्षेत्र सीमित रखा है। उन महत्त्वपूर्ण कलावशेषोंका इसमें समाबेश न होगा जिनको मैंने स्वयं नहीं देखा है। ___ भारतीय शिल्प-स्थापत्य कलाके विकास और संरक्षणमें महाकोसलने कितना योग दिया है, इसका अनुभव वही कर सकता है, जो इन भू-भागके निर्जन-अरण्य एवं खण्डहरोंमें बिखरी हुई तक्षण कलाकी खण्डित कृतियोंके परिदर्शनार्थ स्वयं घूमा हो। जैन मुनि होनेके नाते पैदल चलनेका अनिवार्य नियम होने के कारण महाकोसलके कलातीर्थों में भ्रमण करनेका अवसर मिलता है। मैं दृढ़ता पूर्वक कह सकता हूँ कि इतिहास पुरातत्त्वज्ञों की इस ओर घोर उपेक्षित मनोवृत्तिके कारण, यहाँको बहुमूल्य कला-कृतियाँ सड़कों और पुलोंमें लग गई। कुछ लेख तो आज भी जबलतुर जिलेकी कबरोंमें क्रासके रूपमें लगे हुए हैं। अभी भी जो सामग्री शेष है, वह न केवल तक्षणकलाकी दृष्टि से ही महत्त्वपूर्ण है, अपितु महाकोसल सांस्कृतिक Aho! Shrutgyanam
SR No.034202
Book TitleKhandaharo Ka Vaibhav
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKantisagar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1959
Total Pages472
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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