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________________ ३३४ खण्डहरोंका वैभव भ्रम हो सकता है। प्रसंगतः लिखना अनुचित न होगा कि पद्मासनस्थ मुद्रामें ध्यानी-विष्णुको मूर्तियाँ भी मिलती हैं। बुद्धदेवकी भी मुकुटयुक्त मूर्तियाँ ऐसी ही मुद्रामें बिहार एवं उत्तरप्रदेश में पाई जाती हैं। सच कहा जाय तो यह मुद्रा जैन-मूर्ति कलाकी बौद्धोंको खास देन है। मुख्य प्रतिमाके निम्न भागमें मूर्ति है । दोनों ओर उपासक व उपासिका अंकित हैं; मध्यमें तत्त्वचिन्तन करते हुए दो बौद्ध भिक्षु हैं। इन प्रधान घटनाओंके अतिरिक्त बुद्धदेवके निर्माणको भी भली प्रकार व्यक्त किया गया है। निर्माण मुद्राके दोनों ओर ४, ४ व्यक्ति खड़े हैं। बौद्ध साहित्यमें उल्लेख है कि भगवान् बुद्ध के निर्माणोपरान्त उनकी अस्थियाँ आठ भागोंमें बाँटी गई। उन्हें लेने के लिए निम्न प्रदेशोंके नरेश आये थेमगध, वैशाली, कपिलवस्तु, अल्लकप्य, रामदाम, वेदोप, पावा और कुशीनगर । ये आठों अस्पष्ट मूर्तियाँ उन्हीं आठ प्रतिनिधियोंकी होनी चाहिए। इस प्रकार संपूर्ण परिकर और प्रधान प्रतिमाका निरीक्षण कर लेनेके बाद हमारा ध्यान प्रभावली एवं गवाक्षोंकी ओर जाता है। ___ जहाँतक गवाक्षोंका प्रश्न है, उनमें निश्चित रूपसे बिहारको शिल्पकला, विशेषकर नालन्दाकी मेहराबोंका अनुकरण है। साथ ही साथ हाथीके ऊपर जो घंटाकार शिखराकृति बनी है, वह भाग भी मागधीय कलाकारोंकी देन है। हवीं शतीके बादके महाकोसलीय शिल्पपर जो मागध प्रभाव पड़ा उसका एक कारण यह भी जान पड़ता है कि महाकोसलीय शिवगुप्तकी माता मगधके राजा सूर्यवर्माकी पुत्री थी। अतः संभव है उनके साथ कुछ कलाकार भी आये हों और उन्होंने स्वभाववश अपना प्रभाव छोड़ा हो तो आश्चर्य नहीं। नालन्दा एवं राजगृहमें सैकड़ों मिट्टीकी मोहरें उपलब्ध हुई हैं, जिनमें यही घंटी अंकित है, जिनका समय ७वीं शतीसे १२ वीं शतीतक माना जाता है। बिहारकी शिल्प-स्थापत्य एवं गुप्त कालमें प्रभावलीका अंकन करने में तीन सीमाएँ चित्रित की जाती थीं। सबसे बाहरकी परिधिमें आगकी लपटें बनती थीं। लपटोंमें क्षीण रेखाएँ स्पष्ट Aho ! Shrutgyanam
SR No.034202
Book TitleKhandaharo Ka Vaibhav
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKantisagar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1959
Total Pages472
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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