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________________ मध्यप्रदेशका बौद्ध-पुरातत्व ३२१ लिया है। ये मूर्तियाँ सम्भवतः महाकोसलमें ही ढाली गई होंगी। इनका निर्माणकाल ईसाकी आठवीं शती पूर्व एवं नवम शती बादका नहीं हो सकता । इन प्रतिमाओंको देखकर नालन्दा व कुर्किहारकी धातु-मूर्तियोंका स्मरण हो आता है। महाकोसल के सांस्कृतिक इतिहासमें इन प्रतिमाओंका सर्वोच्च स्थान है । तात्कालिक मूर्तिकलाका सर्वोच्च विकास एक-एक अंगपर लक्षित होता है। तारादेवी सिरपुरसे प्राप्त समस्त धातु-प्रतिमाओंमें तारादेवीकी मूर्ति सबसे अधिक सुन्दर और कलाकी साक्षात् मूर्ति सम है । महाकोसलकी यह कलाकृति इस भागमें विकसित मूर्तिकलाका प्रतिनिधित्व कर सकती है । भारतमें इस प्रकारकी प्रतिमाएँ कम ही प्राप्त हुई हैं। मुझे गन्धेश्वर मन्दिरके महन्त श्री मंगलगिरि द्वारा स० १६४५ दिसम्बर में प्राप्त हुई थीं। इंग्लैंडके अन्तर्राष्ट्रीय कला प्रदर्शनीमें भी रखी गई थीं । दिल्लीमें भी कुछ दिनोंतक रहीं। ___कलाके इस भव्य प्रतीककी ऊँचाई अनुमानतः १॥ फुटसे कम नहीं, चौड़ाई १२" इंचकी रही होगी । यों तो यह सप्तधातुमय है, पर स्वर्णका अंश अधिक जान पड़ता है । इतने वर्ष भूमिमें रहने के बावजूद भी साफ़ करनेपर, उसकी चमकमें कहीं अन्तर नहीं पड़ा। किसी धनलोलुपने स्वर्णमय प्रतिमा समझकर परिकरकी एक मूर्ति के बायें हाथपर छैनी लगाकर, जाँच भी कर डाली है, चिह्न स्पष्ट है । यह परम सौभाग्यकी बात है कि वह छैनीसे ही सन्तुष्ट हो गया, वर्ना और कोई वैज्ञानिक प्रयोगका सहारा लेता तो कलाकारोंको इसके दर्शन भी न होते ! परिकरके मध्यभागमें सुन्दर आसनपर तारा विराजमान है । दक्षिण करमें सीताफलको आकृतिवाला फल दृष्टिगोचर होता है, सम्भवतः यह बीजपूरक होना चाहिए । वाम हस्त आशीर्वादका सूचक है-ऊपर उठा हुआ है । पद्म भी Aho ! Shrutgyanam
SR No.034202
Book TitleKhandaharo Ka Vaibhav
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKantisagar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1959
Total Pages472
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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