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________________ क्रमिक विकास पर अच्छा प्रकाश पड़ता है । डाक्टर राजेन्द्रलाल मित्र एवं फरगुसन, विन्सेन्ट स्मिथ, डा० कुमारस्वामी, बर्जेस व कनिंघम आदि विद्वानोंके साहित्य परिशीलन पर उपयुक्त दृष्टिका विकास हो सकता है। २. मर्ति-शास्त्र-भूमिसे प्राप्त या अन्य किसी स्थानसे उपलब्ध जैन, बौद्ध और हिन्दू-धर्म सम्बद्ध प्रतिमाओंका सशास्त्र अध्ययन । कलाकार को उक्त विषयका जितना सूक्ष्म ज्ञान होगा उतना ही वह अन्वेषणके क्षेत्रमें यशस्वी होगा । अपेक्षित ज्ञानकी अपूर्णताके कारण कभी-कभी ख्यातिप्राप्त पुरातत्त्ववेत्ता भयंकर भूल कर बैठता है । खंडहरोंके वैभवमें ऐसी भद्दी भूलोंका परिमार्जन किया गया है । मूर्तिशास्त्रका अध्ययन तुलनामूलक होना चाहिए। प्र.न्तीय प्रभावोंपर विशेष रूपसे ध्यान देना अावश्यक है। ... ३. उत्कीर्ण व उठे हुए-लेख भी खण्डहरोंसे या कभी-कभी खेतोंमें प्राप्त होते हैं। इनको पढ़नेके लिए और बिना कालसूचक लेखोंके समयादि स्थिर करनेके लिए एवं तद्गत ऐतिहासिक तत्त्व प्राप्त्यर्थ पुरातन लिपियोंका गंभीर सक्रिय अध्ययन वांछनीय है । बिना लिपिज्ञानके कलाकार अपनी साधनामें सफल न हो सकेगा । मान लीजिए, कभी आप किसी खंडहरमें निकल गये, वहाँ एक लेखपर अापकी दृष्टि पड़ी, किंतु लिपि विषयक आपका ज्ञान सीमित है, आप उसे नहीं पढ़ सकते हैं, न आपके पास केमरा है। पर पुरातत्त्वमें रुचि रखनेके कारण जिज्ञासा अवश्य ही होती है कि इसमें क्या है। उस समय मनमें बड़ा उद्वेग होता है। यदि इस अाकस्मिक प्राप्त सामग्रीकी उपेक्षा करते हैं तो वह शिला ग्रामीण द्वारा भंग व चटनी पीसनेके निमित्त उठवा ली जाती है, बहुधा ऐसा हुआ है। इस समस्याको हल करनेके लिए स्वगीय पुरातत्त्वज्ञ बाबू पूर्णचन्द्रजी नाहर द्वारा एक प्रयोग मेरे ज्येष्ठ गुरुबन्धु मुनि श्री मंगलसागरजीको प्राप्त हुअा था जो इस प्रकार है । ढाई तोला स्वच्छ मोममें डेढ़ तोला काजल मिलाया जाय, उष्ण करके मथा जाय, तदनन्तर मोटी पेन्सिलके समान डण्डाकृतिमें ढालकर ३६ Aho! Shrutgyanam
SR No.034202
Book TitleKhandaharo Ka Vaibhav
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKantisagar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1959
Total Pages472
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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