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________________ प्रयाग संग्रहालयकी जैन-मूर्तियाँ २४७ मार रही है कि मानो शंख प्रक्षालनार्थ रखा गया हो, जैसा कि बौद्ध प्रतिमाओं में पाया जाता है, परन्तु यहाँ यही उद्देश्य हो तो साथ में और भी पूजा के उपकरण चाहिए। यदि शंख, लांछन के स्थानपर न हो तब तो मेरी कल्पना काम आ जाती, क्योंकि प्राचीन पार्श्वनाथ भगवान् की मूर्तियाँ ऐसी अवलोकन में आई हैं, जिनके पास आंबेकाकी प्रतिमा है । यहाँपर भी माना जा सकता था, कि जो आम्रवृक्ष है, वही अंत्रिकाका प्रतीक है और फनोंके कारण मूर्ति पार्श्वनाथकी है। जबतक कि प्राचीन शिल्प स्थापत्यके ग्रन्थों में इस प्रकार के स्वरूपका पता न चले और इस शैलीकी अन्य प्रतिमाएँ उपलब्ध नहीं हो जातीं, तत्रतक जैनमूर्ति विधानमें रुचि रखनेवाले अभ्यासियोंके सामने यह समस्या बनी रहेगी । एतद्विषयक गवेषकोंसे मेरा विनम्र निवेदन है कि वे अपने अनुभवोंसे इस समस्यापर प्रकाश डालें । यह मूर्ति खजुराहो से प्राप्त की गई है और निर्माण काल दशम शताब्दी प्रतीत होता है । ६११ - संख्यावाली प्रतिमा ३८ " x ३० " इंच है, यह है तो बड़ी ही सुन्दर पर दुर्भाग्य से उसका परिकर पूर्णतः खंडित है । जैसा कि आप चित्र| में देख रहे हैं । जो भाग बच पाया है, वह इसकी विशालताका सूचक 1 है । प्रधान प्रतिमाका मुखमंडल भरा हुआ है, ओजपूर्ण है । मस्तकपर केश गुच्छक है, जैसाकि और भी अनेक जैन प्रतिमाओं में पाया जाता है। भामंडल भी कलापूर्ण है । प्रतिमा के स्कन्ध प्रदेश पर पड़ी हुई केशावली से अवगत होता है कि मूर्ति श्री ऋषभदेवकी है । अधिष्ठातृ देवीके रूपमें, इसमें भी अंबिका ही है । इस प्रतिमा के पृष्ठ भागकी ओर ध्यान देनेसे विदित होता है कि मूर्ति न जाने कितनी विशाल रही होगी । आश्चर्य नहीं चतुर्विंशतिका पट्ट भी हो । दक्षिण भाग में खंडित घुटनेवाली दो खड़ी जैन-मूर्तियाँ हैं, और इनके भी ऊपर तीन खड़ी हुई हैं । खंडितांशसे पता लगता है कि ऊपर के और भागों में भी मूर्तियाँ होंगी, क्योंकि प्रभामंडल आधे से अधिक खंडित है । इस अनुपातसे तो कम-से-कम २|| फुटसे ऊपरकी प्रस्तर पट्टिका Aho ! Shrutgyanam
SR No.034202
Book TitleKhandaharo Ka Vaibhav
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKantisagar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1959
Total Pages472
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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