SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 241
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रयाग-संग्रहालयकी जैन - मूर्तियाँ २२३ हुए भी ज्यों-ज्यों बाह्य उपकरणों में परिवर्तन होता जाता है, त्यों-त्यों कलामें मौलिक ऐक्य रहते हुए भी बाह्य अलंकारोंमें परिवर्तन होता जाता है । रुचि एवं देशभेद के कारण भी ऐसे परिवर्तन संभव हैं कि जिनके विकसित रूपको देखकर कल्पना तक नहीं होती कि इनका आदि श्रोत क्या रहा होगा ? जैन-मूर्तिकलापर यदि इस दृष्टिसे सोचें तो आश्चर्यचकित रह जाना पड़ेगा । प्रारम्भिक कालकी प्रतिमाएँ एवं मध्यकालीन मूर्तियोंके सिंहावलोaah बाद अर्वाचीन मूर्तियों एवं उनकी कलापर दृष्टि केन्द्रित करें त उपर्युक्त पंक्तियोंका अनुभव हो सकता है । जहाँ जैन-मूर्ति निर्माण कला और उसके विकास तथा उपकरणोंका प्रश्न उपस्थित होता है, वहाँ प्रस्तर, धातु, रत्न, काष्ठ और मृत्तिका आदि समस्त निर्माणोपयोगी द्रव्योंकी मूर्तियों की ओर ध्यान स्वाभाविक रूपसे आकृष्ट हो जाता है, परन्तु यहाँ पर मेरा क्षेत्र केवल प्रस्तर मूर्तियों तक ही सीमित है | अतः मैं अति संक्षिप्त रूपसे प्रस्तत्कीर्णित मूर्तियोंपर ही विचार करूँगा । भारत में मूर्तिका निर्माण, क्यों, कैसे तथा कब से प्रारम्भ हुआ यह एक ऐसी समस्या है, जिसपर अद्यावधि समुचित प्रकाश नहीं डाला गया । यद्यपि पौराणिक आख्यानों की कोई कमी नहीं है, क्योंकि भारतमें हर चीज़ के पीछे एक कहानी चलती है, परन्तु जैनमूर्तियों के विषयमें ऐसी कहानियाँ अत्यल्प मिलेंगी जिनमें तनिक भी सत्य न हो या उनमें मानव- - विकासका तत्त्व न हों । यहाँपर ग्रन्थस्थ लेखोंपर विचार न कर केवल उन्हीं आधारों पर विचार करना है, जो शिलाओं पर खुदे हुए पुरातत्त्वज्ञों के सम्मुख समुपस्थित हो चुके हैं । उपस्थित जैन मूर्तियों के आधार पर बहुसंख्यक भारतीय एवं विदेशी विद्वानोंनेजैन - शिल्प और मूर्ति - विज्ञानपर अपने बहुमूल्य विचार व्यक्त किये हैं । किंतु मथुरा से प्राप्त शिल्प ही प्रधान रूपमें उनके विचारों के आधार रहे हैं । विद्वानों ने अपना अभिमत-सा बना रखा है कि जैन-मूर्ति निर्माणका प्रारम्भ सबसे पहले मथुरा में कुषाण युग में ही हुआ, पर वस्तुतः बात ऐसी नहीं है। हाँ, इतना कहा जा सकता है कि कुषाण युगमें ज़ैनाश्रित कलाका विकास काफी हुआ । Aho! Shrutgyanam
SR No.034202
Book TitleKhandaharo Ka Vaibhav
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKantisagar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1959
Total Pages472
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy