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________________ २१६ खण्डहरोंका वैभव जिन-मूर्ति ___४५" ४११" की भूरे रंगकी प्रस्तर शिलापर खड़ी जिनमूर्ति उत्कीर्णित है। सामान्यतः शरीर रचना अच्छी ही बनी है। अजानुबाहुमें हाथोंका मुड़ाव स्वाभाविक है। अँगुलियोंका खुदाव तो बड़ा ही स्पष्ट और भव्य है। मुखमंडल भी अतीव सुन्दर रहा होगा, परन्तु नासिका और चक्षु-युगल बुरी तरह क्षत-विक्षत हो गये हैं। भौहें अच्छी बनी हैं । मस्तकपर धुंघराले बाल बने हैं। इस ओर पाई जानेवाली जैन-बौद्ध-मूर्तियोंमें एवं एक मुखी शिवलिंगमें मस्तकपर उपरिलक्षित केश-रचनाका रिवाज था। इसलिए यदि केवल सर ही किसी मूर्तिका मिल जाय तो अचानक निर्णय करना कठिन हो जाता है कि वह किसका है। ___मूर्तिके दोनों हाथोंके पास दो पार्श्वद उत्कीर्णित हैं, परन्तु उन दोनोंके कटि प्रदेशके ऊपरका भाग नहीं है। इन पार्श्वदोंके ठीक अग्रभागमें दायें-बायें क्रमशः यक्ष-यक्षिणी हैं, इनका भी मुखका भाग एवं हाथका कुछ हिस्सा खंडित है । आसनका भाग अन्य मूर्तियोंसे मिलता-जुलता है । केवल निम्न-मध्य भागमें दायों ओर मुख किये उपासक अधिष्ठित हैं एवं आसनके बीचमें सिंहका चिह्न है। ऊपर प्रभावलीके ऊपर ३ छत्र हैं, जिनके उभय भागमें दो हाथी शुण्डा निम्न किये हुए हैं। छत्रपर देव मृदंग बजा रहा है। प्राचीनकालकी जिनमूर्तियों में चिह्न प्रायः नहीं मिलते । गुप्तोत्तरकालीन प्रतिमाओंमें यक्ष-यक्षिणियोंकी मूर्तियाँ खुदी हुई मिलती हैं । इनसे कौन मूर्ति किस तीर्थकरकी है ज्ञात हो जाता है, परन्तु इनमें एक बातकी दिक्कत पड़ जाती है कि प्राचीन मूर्तियोंमें यक्ष-यक्षिणियोंके स्वरूप जैन शिल्पशास्त्रीय ग्रन्थोंसे मेल नहीं खाते अर्थात् वास्तुशास्त्रमें वर्णित इनके स्वरूपसे मूर्तियाँ बिल्कुल भिन्न मिलती हैं । उदाहरणार्थ-इसी मूर्तिको लें। इसमें सिंहका चिह्न है। यदि चिह्न न होता और यक्ष-यक्षिणीसे पहचाननेकी चेष्टा करते तो असफल रहते । यह मूर्ति दिगम्बर सम्प्रदायसे सम्बन्धित है, तदनुसार यह Aho! Shrutgyanam
SR No.034202
Book TitleKhandaharo Ka Vaibhav
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKantisagar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1959
Total Pages472
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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