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________________ खण्डहरोंका वैभव होता है । इस विषयपर हमने अन्यत्र विस्तारसे विचार किया है, अतः यहाँ पिष्टपेषण व्यर्थ है । स्मरण रहे कि इस प्रकारकी एक प्रतिमा मैंने कौशाम्बीमें भी लाल प्रस्तरपर खुदी हुई देखी थी जो शुंगकालीन है । नवग्रह-युक्त जिन-प्रतिमा महाकोसलके जंगलोंमें भ्रमण करते हुए एक वृक्षके निम्नभागमें पड़ी हुई गढ़ी-गढ़ाई प्रस्तर-शिलापर हमारी दृष्टि स्थिर हो गई। सिन्दूरसे पोत भी दी गई थी। पत्थरकी यह शिला जनताको 'खैरमाई' थी। इस शिलाखण्डको एकान्त देखकर, मैंने उल्टाया। दृष्टि पड़ते ही मन बड़ा प्रफुल्लित हुआ, इसलिए नहीं कि उसमें जैनमूर्ति उत्कीर्णित थी इसलिए कि इस प्रकारका जैनशिल्पावशेष अद्यावधि न मेरे अवलोकनमें आया था, न कहीं अस्तित्वकी सूचना ही थी। अतः अनायास नवीनतम कृतिकी प्राप्तिसे आह्लाद होना स्वाभाविक था । इस शिलापर मुख्यतः नवग्रहकी खड़ी मूर्तियाँ खुदी हुई थीं। तन्मध्यभागमें अष्टप्रतिहार्य युक्त जिन प्रतिमा विराजमान थी। जैनमूर्ति विधानशास्त्रमें प्रतिमाके परिकर में नवग्रहोंकी रचनाका विधान पाया जाता है। कहीं पर नवग्रह सूचक नव-आकृतियाँ एवं कहीं-कहीं मूर्तियाँ दृष्टिगोचर होती हैं, परन्तु नवग्रहोंकी प्रमुखताका द्योतक, परिकर अद्यावधि दृष्टिगोचर नहीं हुआ। लखनऊ एवं मथुरा संग्रहालयके संग्रहाध्यक्षोंको भी इस प्रकारकी मूर्तियों के विषयमें लिखकर पूछा था । उनका प्रत्युत्तर यही आया कि ग्रह प्रतिमाओंकी प्रमुखतामें खुदी हुई जैनमूर्तिका कोई भी अवशेष न हमारे अवलोकनमें आया, न हमारे यहाँ है ही। प्रासंगिक रूपसे यह कहना अनुचित न होगा कि अन्य प्रान्तोंकी अपेक्षा महाकोसलमें सूर्यको स्वतन्त्र एवं नवग्रहकी सामूहिक मूर्तियाँ प्रचुर परिमाणमें उपलब्ध होती हैं। उन सभीकी रचना शैली इस चित्रसे ही स्पष्ट हो जाती है। अन्तर केवल इतना ही है कि इस शिलामें जिन-मूर्ति है, जब अन्यत्र वह नहीं Aho! Shrutgyanam
SR No.034202
Book TitleKhandaharo Ka Vaibhav
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKantisagar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1959
Total Pages472
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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