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________________ महाकोसलका जैन-पुरातत्त्व दृष्टि से देखते थे। कलचुरि शंकरगण तो जैनधर्मके अनुयायी थे, इनने कुल्पाकक्षेत्रमें १२ गाँव भी भेंट चढ़ाये थे। इनका काल ई० सं० सातवीं शती पड़ता है । महाकोसलमें सर्वप्रथम कोक्कल्लने अपना राज्य जमाया । त्रिपुरी-तेवर-इनकी राजधानी थी । कलचुरियोंका पारिवारिक संबंध दक्षिणी राष्ट्रकूट शासकोंके साथ था । राष्ट्रकूटोंपर जैनोंका न केवल प्रभाव ही था, बल्कि उनकी सभामें जैन विद्वान् भी रहा करते थे। महाकवि पुष्पदंत राष्ट्रकूटों द्वारा ही आश्रित थे। अमोघवर्षने तो जैन-धर्मके अनुसार मुनित्व भी अंगीकार किया था, ऐसा कहा जाता है । यद्यपि बहुरीबंद आदि कुछेक स्थानोंकी जैन-मूर्तियोंको छोड़कर कलचुरि-कालके लेख नहीं पाये जाते, बल्कि स्पष्ट कहा जाय तो कलचुरिकालीन जैन शिल्पकृतियोंको छोड़कर, शिलोत्कीर्णित लेख अत्यल्प ही पाये गये हैं, परन्तु लखोंके अभावमें भी उस समयकी उन्नतिशील जैन-संस्कृतिके व्यापक प्रचारके प्रमाण काफ़ी हैं । जैन-मूर्तियों के परिकर एवं तोरण तथा कतिपय स्तभोंपर खुदे हुए अलंकरणोंके गम्भीर अनुशीलनसे स्पष्ट ज्ञात होता है कि उनपर कलचुरिकालमें विकसित, तक्षणकलाका खूब हो प्रभाव पड़ा है, कुछेक अवशेष तो विशुद्ध महाकोसलके ही हैं । कृतियाँ भिन्न भले ही हों, पर कलाकार तो वे ही थे या उनकी परम्पराके अनुगामी थे । निर्माण-शैली और व्यवहृत पाषाण ही हमारे कथनकी सार्थकता प्रमाणित कर देते हैं। यहाँ के इस कालके जैन, बौद्ध और वैदिक अवशेषोंको देखनेसे ज्ञात होता है कि यहाँ के कलाकार स्थानीय पाषाणोंका उपयोग तो कलाकृतियों के निर्माणमें करते ही थे, पर कभी-कभी युक्त प्रान्तसे भी पत्थर मँगवाते थे । कलचुरिकालके पत्थरकी मूर्तियाँ अलगसे ही पहचानी जाती हैं । से १३वीं शती तकके जितने भी जैन-अवशेष प्राप्त हुए हैं, उनमेंसे बहुतोंका निर्माण त्रिपुरी और बिलहरीमें हुआ होगा । कारण दोनों स्थानोंपर जैन-मूर्तियाँ आदि अवशेषोंको प्रचुरता है। कैमोरके पत्थरकी जैन प्रतिमाएँ प्रायः बिलहरीमें मिलती हैं और बिलहरीके ही लाल पत्थरके Aho! Shrutgyanam
SR No.034202
Book TitleKhandaharo Ka Vaibhav
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKantisagar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1959
Total Pages472
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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