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________________ महाकोसलका जैन-पुरातत्त्व मिराशीजी मानते हैं ) अतः ईसवीपूर्व ३ री शतीमें जैन-प्रभाव महाकोसलमें था। शिल्प-स्थापत्य कलाकी विकसित परम्पराको समझानेके लिए मूर्तिकी अपेक्षा स्थापत्य अधिक सहायक हो सकते हैं। सम-सामयिक कलात्मक उपकरणोंका प्रभाव स्थापत्यपर अधिक पड़ता है। महाकोसल में प्राचीन जैन-स्थापत्य बच ही नहीं पाये, केवल आरंगका एक जैनमन्दिर बच गया सर्वे मंदिरकंदरोपमगुहाचैत्यालयालंकृते रम्ये रामगिराविदं विरचितं शास्त्रं हितं प्राणिनाम् ॥ इसमें रामगिरिके लिए जो विशेषण दिये गये हैं, गुहा मन्दिर चैत्यालयोंकी जो बात कही है, वह भी इस रामगिरिके विषय में ठीक जान पड़ती है । कुलभूषण और देशभूषण मुनिका निर्वाणस्थान भी यही रायगढ़ है या उसके आसपास कहीं महाकोसल ही में होगा। जैन साहित्य और इतिहास, पृ० २१२ प्रेमीजीकी उपर्युक्त कल्पनासे मैं भी सहमत हूँ, कारण कि कालीदास वर्णित यही रामगिरि है। वाल्मीकि रामायणके किष्किन्धाकाण्डमें शिलाचित्र एवं उसके खास शब्दोंका उल्लेख आया है । ऊपरके सभी उल्लेख इसी स्थानपर चरितार्थ होते हैं। रामटेकमें उल्लेखनीय शिलाचित्रण उपलब्ध नहीं होते । यदि रामटेक ही रामगिरि होता तो मध्यकालीन जैन-यात्री या साहित्यिक इसका उल्लेख अवश्य ही करते। इतना निश्चित है कि उपर्युक्त मुनियोंका निर्वाणस्थान महाकोसलमें ही था। 'महाको सलमें बहुत-से ऐसे जैन-मन्दिरके अवशेष व पूरे मंदिर पाये जाते हैं, जो अजैनोंके अधिकारमें हैं। कुछ ऐसे भी मन्दिर हैं जो अद्यावधि पहिचाने नहीं गये । उदाहरणार्थ--रायबहादुर डा० हीरालालने मंडला-मयूख पृ० ७६ में कुकर्रा मठकी चर्चा करते हुए लिखा है कि "इस मन्दिरकी कारीगरी नवीं या १० वीं शताब्दीकी जान पड़ती है। पुरातत्त्वज्ञ इस मन्दिरको जैनी बतलाते हैं।" बरेठा, बिलहरी और बड़गाँवमें ऐसे मन्दिर व अवशेषोंकी कमी नहीं है। Aho! Shrutgyanam
SR No.034202
Book TitleKhandaharo Ka Vaibhav
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKantisagar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1959
Total Pages472
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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