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________________ खण्डहरोंका वैभव छत्तीसगढ़ महाकोसल में अन्तर्भूत हो जाता है, पर मूर्ति निर्माणकला में उत्तर और दक्षिण कोसल में अन्तर है, उत्तर कोसल में ऐसी जिनमूर्तियाँ अत्यल्प उपलब्ध हुई हैं, जिनमें गृहांकन सशरीर या सायुध हो, जब कि दक्षिण कोसलकी अधिकांश मूर्तियाँ उपर्युक्त परम्पराका अपवाद हैं । परिकर में साँचीके तोरणकी आकृतिके चिह्न अवश्य ही मिलेंगे । छत्तीसगढ़ की जैनधातु-प्रतिमा मुझे सिरपुरसे उपलब्ध हुई थी; उसमें भी नवग्रहों का सशरीर सायुध अंकन था । यह प्रतिमा नवम शताब्दीकी थी । अधिष्ठाता के स्थान पर कुबेर एवं अधिष्ठातृके स्थानपर अम्बिका विराजमान है । डोंगरगढ़की यह ऋषभदेवकी प्रतिमा उपर्युक्त धातु-मूर्ति के अनुकरणात्मक स्वरूप में दिखती है । अन्तर इतना ही है कि कुबेर और अम्बिका के स्थानपर, गोर्मेध यक्ष एवं यक्षिणी चक्रेश्वरी है । १८० इस उपासक व उपासिकाओंका स्थान जैन - परिकर में आवश्यक माना गया है । यहाँपर भी ये दोनों स्पष्ट है; बल्कि पूजनकी सामग्री भी कलाकारने अंकित कर, अंतिम गुप्तकालीन मूर्ति निर्माण कलाकी आमा बता दी है। सूचित समयकी जैन-बौद्ध- सपरिकर मूर्तियाँ मन्दिरके आकारकी दीखती थीं । धूपदान, आरती, कलश एवं पुष्पपात्र भी अंकित रहते थे । परम्पराका विकास सिरपुरस्थ धातुप्रतिमा में स्पष्टतः परिलक्षित होता है । प्रस्तुत ऋषभदेवकी प्रतिमा के परिकर में विवर्तित किरीट मुकुट बहुत ही आकर्षक बने हैं । मूर्ति सपरिकर चालीस इंच ऊँची छबीस इंच चौड़ी है । निस्सन्देह प्रतिमा किसी समय मन्दिरके मुख्य गर्भद्वारकी रही होगी। अभी तो इसपर खूब तैल-युक्त सिन्दूर पोता जाता है, और आध्यात्मिक भावों की साकार आकृति द्वारपालका काम करती है । इसी मन्दिरके निकट और भी नागचूर्ण से अभिषिक्त कतिपय अवशेष पड़े हुए हैं। इनमें कुंभ, कलश, मीन युगल व दर्पणकी आकृतियाँ, उनके Aho! Shrutgyanam
SR No.034202
Book TitleKhandaharo Ka Vaibhav
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKantisagar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1959
Total Pages472
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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