SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 185
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ मध्यप्रदेशका जैन-पुरातत्त्व नहीं है। परन्तु कलाकारकी आत्मा या उसके द्वारा खिंची हुई रेखाएँ मौनवाणीमें अपना निर्माणकाल स्वयं कह रही हैं । १० वीं शतीको पूर्वकी और ११ वी की बादकी यह कृति नहीं हो सकती, कारण स्पष्ट है । वस्त्रोंकी शलें एवं नारियोंके मुख तत्कालीन एवं तत्परवर्ती विकसित शिल्पकलासे मेल रखते हैं। होठोंकी मुटाई, कर्णफूल एवं नासिका ये विशुद्ध महाकोसलीय उपकरण हैं। पुरुषोंकी नाक Poninted है, वहीं कृत्रिमता है । अवशिष्ट स्वाभाविक एवं जनजीवनसे सम्बन्धित है। - उपयुक्त विशाल मंदिर में तेवरसे लाई हुई कुछ और जैन-मूर्तियाँ एवं जैनमन्दिरके स्तम्भ-खण्ड विराजमान हैं। एक प्रतिमा, यद्यपि अपरिकर है, तथापि उसकी मुखाकृति एवं शारीरिक अंगोपांगोंका गठन प्रेक्षणीय है । परिकर विहीन मूर्तियोंमें यही मूर्ति मुझे सर्वश्रेष्ठ अँची। इस मन्दिरमें मराठा कलमके कुछ भित्ति-चित्र पाये जाते हैं। जैनधर्म एवं तदाश्रित कथाओंके प्रसंगके अतिरिक्त १४ राजलोक २३ द्वीप आदिके नक्शे भी हैं। पूरे मंदिरमें एक छतकी रेखाएँ एवं इन चित्रोंके अतिरिक्त प्राचीनताका आभास दे सकनेके योग्य सामग्री नहीं है। जबलपुरसे चार मीलपर छोटी-सी पहाड़ीके ऊपर एक स्थान बना हुआ है, जिसे लोग पिसनहारी की मढ़िया कहते हैं। इसका वास्तविक इतिहास अप्राप्य है, किन्तु किंवदन्तीके आधारपर कहा जा सकता है कि दुर्गावतीकी सिनहारी श्राविका थी। उसीने इसका निर्माण करवाया। गुम्बजके ऊपर अभी भी चक्कीके दो पाट लगे हुए हैं। उपर्युक्त कल्पना पुष्ट हो जाती है। त्रिपुरी त्रिपुरीका जितना ऐतिहासिक महत्त्व है, उससे भी कहीं अधिक महत्त्व महाकोसलीय पुरातत्त्वकी दृष्टि से है। कलचुरि वास्तुकलापर प्रकाश डाल सकें, वैसी सामग्री तो त्रिपुरीमें उपलब्ध नहीं होती, पर हाँ महाकोसलीय Aho ! Shrutgyanam
SR No.034202
Book TitleKhandaharo Ka Vaibhav
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKantisagar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1959
Total Pages472
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy