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________________ १०८ खण्डहरोंका वैभव धीरे-धीरे पूज्य पुरुषोंकी प्रतिमाएँ बनने लगी और बड़े-बड़े मन्दिरोंका निर्माण होने लगा। पंडित बेचरदासजीकी उपयुक्त मान्यता शब्दशास्त्रकी दृष्टिसे युक्ति-संगत नहीं जान पड़ती है। क्योंकि इस तकके पीछे कोई सांस्कृतिक विचारधारा या अकाट्य प्रमाण नहीं है। डा० प्रसन्नकुमार प्राचार्य ठीक कहते हैं-कि चैत्य या कबाँसे मन्दिरोंका कोई सम्बन्ध न था । . ___डा० प्राचार्य लिखते हैं.---"कल्पसूत्रके कुछ अंशको शुल्मसूत्र कहते हैं, जिसमें वेदो बनानेकी रीति और उनकी लम्बाई आदि दी है। इसमें "अग्नि" या ईटोंसे बनी हुई बृहत्तर वैदियोंकी रीतिका वर्णन है। वे वेदी सोमयज्ञको थीं, जिनका निर्माण वैज्ञानिक तौरपर हुआ था। संभवतः यहींसे मन्दिर निर्माणका सूत्रपात होता है। __ऐतिहासिक उल्लेखोंसे तो यही ज्ञात होता है कि प्राप्त मूर्तियोंमें सर्व प्राचीन प्रतिमाएँ जैनोंकी है, जैसा कि ऊपरके भागमें सूचित किया जा चुका है, परन्तु एक बातका आश्चर्य अवश्य होता है, कि जितना प्राचीन जैन-पुरातत्त्व उपलब्ध हुअा है, उतना ही अर्वाचीन एतद्विषयक साहित्य है। अर्थात् प्रतिमाओंका इतिहास मोहन्-जो-दडो तक पहुँचाता है, तो शिल्प विषयक ग्रन्थोंका निर्माण १०वीं शती बादका मिलता है। प्रथम "साहित्य" या "कृति" यह प्रश्न उठता है और विशेषता इस बातकी है कि जिन प्रतिमाओंकी सृजन शैलीमें कालानुसार भले ही परिवर्तन हुआ, - इनसे उनका सम्बन्ध स्पष्ट हो जाता है। पद्मपुर आदि और भी अनेक स्थानोंपर देवस्थान स्वरूप छोटी-सी टपरियाँ मिलती हैं, जिन्हें मध्यप्रदेशमें “मढ़िया" कहते हैं। सरोवर तीरपर और पहाड़ियोंपर भी ऐसी मढ़िये मिलती हैं। 'मन्दिर दाहस्थानका सूचक नहीं, किन्तु देवस्थानका परिचायक है, 'प्राचीन भारतवर्ष १, सं०८। Aho! Shrutgyanam
SR No.034202
Book TitleKhandaharo Ka Vaibhav
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKantisagar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1959
Total Pages472
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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