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________________ जैन- पुरातत्व ही क्या थी ? क्योंकि वहाँ न तो आभूषण थे और न वैसी सम्पत्तिके लूटे जाने का ही कोई भय था, यह प्रथा बड़ी सुन्दर और सब लोगों के दर्शन के लिए उपयुक्त थी । १०५ प्राचीन गुफात्रों में उदयगिरि, खंडगिरि, ऐहोल, सितन्नवासल्ल, चाँदवड़, रामटेक, एलग - इन गुफाओं से मानना होगा कि दशम शती तक इसी सात्त्विक प्रथाका परिपालन होता था । ढंकगिरी जोगीमारा गिरनार आदि विभिन्न प्रान्तों में पाई जाने वाली अति प्राचीन और भारतीय तक्षणकलाकी उत्कृष्ट मौलिक सामग्री है । गुफाओंके सौंदर्य श्रभिवृद्धि करनेके ध्यानसे जोगीमारा, सित्तन्नवास श्रादिमें चित्रोंका अंकन भी किया गया था, इन भित्तिचित्रोंकी परम्पराको मध्यकाल में बहुत बड़ा बल मिला । भारतीय चित्रकला - विशारदोंका तो अनुभव है कि आज तक किसी-न-किसी रूपमें जैनोंने भित्तिचित्र परम्परा के विशुद्ध प्रवाहको कुछ शतक सुरक्षित रखा है । ता० ८-३-४८ को शान्तिनिकेतन में कलाभवन के प्राचार्य और चित्रकला के परम मर्मज्ञ श्रीमान् नन्दलालजी बोसको मैंने अपने पासकी हस्तलिखित जैन सचित्र कृतियाँ एवं बड़ौदा निवासी श्रीमान् डा० मंजूलाल भाई मजूमदार द्वारा प्रेषित दुर्गासप्तशती के मध्यकालीन चित्र बतलाये, उन्होंने देखते ही इनकी कला और परम्परापर छोटा-सा व्याख्यानदे डाला, जो आज भी मेरे मस्तिष्क में गूँजता है । उसका सार यही था कि इन कलात्मक चित्रोंपर एलोराकी चित्र और शिल्पकलाका बहुत प्रभाव है । जैन-शैली के विकासात्मक तत्त्वोंका मूल बहुत अंशों में एलोरा ही रहा है | चेहरे और चक्षु तो सर्वथा उनकी देन है । रंग और रेखा पर आपने कहा कि जिन-जिन रंगों का व्यवहार एलोराके चित्रोंमें हुआ है, वे ही रंग और रेखाएँ आगे चलकर जैन चित्रकला में विकसित हुईं। यह तो एक उदाहरण है । इसीसे समझा जा सकता हैं कि जैन - चित्रकलाकी दृष्टिसे भी इन स्थापत्याविशेषांका ८ Aho ! Shrutgyanam
SR No.034202
Book TitleKhandaharo Ka Vaibhav
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKantisagar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1959
Total Pages472
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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