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________________ जैन-पुरातत्त्व यह मूर्ति शान्तिनाथजीकी होनी चाहिए। कारण कि मृगलांछन स्पष्ट है। पार्श्वनाथकी भी एक प्रतिमा है जिसका क़द उपर्युक्त आकृतिसे तीसरे भागका है । पंचफन भी स्पष्ट है । गवाक्षमें भी जिनप्रतिमाएँ है। इन प्रतिमाओंकी रचनाशैलीसे ज्ञात होता है कि १३ शतीकी होंगी। क्योंकि परिकरके निर्माणमें कलाकारने जिन उपकरणोंका प्रयोग किया है, वे प्राचीन नहीं हैं। महाकवि श्री मेघविजयजीने पूर्व सूचित समस्यापूर्तिवाले विज्ञप्ति पत्रमें इस स्थानका परिचय इन शब्दोंमें दिया है गत्यौत्सुक्येऽप्यणकि टणकी दुर्गयो स्थेयमेव, पार्श्वः स्वामी स इह विहृतः पूर्वमुर्वाशसेव्यः जाग्रदुये विपदि शरणं स्वर्गिलोकेऽभिवन्द्यम्, अत्यादित्यं हुतवहमुखे संभृतं तद्धि तेजः' ।। त्रिंगलवाड़ी . आग्रारोडपर स्थित इगतपुरीसे छठवें मीलपर एक पहाड़ी दुर्गपर यह ग्राम बसा हुआ है । पहाड़ीके निम्न भागमें एक जैन गुफा है । यहाँ सूक्ष्म खुदाईको देखनेसे पता लगता है कि किसी समय यह गुफा उन्नतावस्थामें रही होगी। गुफाके भीतरी भागवाला कमरा ३५ फुटका है, और इसके अन्दर एक और कमरा है। गुफाद्वार-सम्मुख छतके मध्य भागमें गोलाकार पाँच मानवाकृतियाँ खचित हैं। द्वारपर एक जिनमूर्ति है । गुफाके भीतर भी पबासनपर तीन जिनप्रतिमा हैं। भीतर जो कमरा है, उसकी दीवालके पास भी पुरुषाकार 'जिन' है। वक्षस्थल तथा मस्तक खंडित है। केवल चरण के अवशेष विद्यमान हैं। वृषभके चिह्नसे ज्ञात हुआ कि यह मूर्ति युगादिदेवकी है। सं० १२६६का एक लेख भी मिला है, जो उत्तर कोनेकी दीवालपर था । 'विज्ञप्ति लेख-संग्रह, पृष्ठ १०१, Aho! Shrutgyanam
SR No.034202
Book TitleKhandaharo Ka Vaibhav
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKantisagar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1959
Total Pages472
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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