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________________ हिन्दी भाषा - २ - 1- टीका समेतः 1 मंगल अस्सणि सत्तमि, अणुराह बुध अट्टमिया ॥ १६८ ॥ नवमि य पुक्ख सुरगुरु, दसमी रेवई य सुक्कवारा ए । एगारिसि सनि रोहिणि, अमियायं सव्वे विसजोगा ॥ १६६ ॥ भावार्थ- उक्त जो अमृत सिद्धि योग कहे हैं वे किसी तिथि योगसे विषयोग ( अनिष्ट योग ) भी हो जाते हैं, जैसे किरविवार को हस्त नक्षत्र अमृत सिद्धि योग है, परन्तु पंचमीका संयोगसे विषयोग हो जाता है वैसे- सोमवार को मृगशीर्ष नक्षत्र और षष्ठी तिथि, मंगलवारको अश्विनी नक्षत्र और सप्तमी तिथि, बुधवार को अनुराधा नक्षत्र और अष्टमी तिथि, गुरुवार को पुष्य नक्षत्र और नवमी तिथि, शुक्रवारको रेवती नक्षत्र और दशमी तिथि, शनिवार को रोहिणी नक्षत्र और एकादशी तिथि हो तो विषयोग हो जाते हैं ।। १६८-१६६ ॥ अर्द्धप्रहः योग ४६ भाणु च ससि सत्तम, धरणिसूओ बीय बुध पंचाणं t गुरु अट्टम भिगु तीयं, छट्ट सनि अद्धपुराणं ॥ १७० ॥ भावार्थ- दिनमान के सोलहवे भागको अर्द्धप्रहर ( यामार्द्ध) कहते है, यह रविवार को चौथा, सोमवारको सातवाँ, मंगलवार को दूसरा, बुधवार को पांचवां, गुरुवार को आठवाँ, शुक्रवार को तीसरा और शनिवारको छट्ठा अर्द्ध प्रहर योग है वह शुभकार्य में वजनीय है ॥ १७० ॥ कालवेलायोग--- थावर बिय सग सुकं, सुरगुरु चउ बुद्ध एग भू छ । सोम तिय रवि अट्ठ, अद्धपुहरं कालवेलाणं ॥ १७६ ॥
SR No.034201
Book TitleJyotishsara Prakrit
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhagwandas Jain
PublisherBhagwandas Jain
Publication Year1923
Total Pages98
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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