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________________ ( ४५ ) नहीं और यदि असमर्थ हो तो उपकार से कोई लाभ नहीं। क्योंकि जो पदार्थ जिस कार्य में समर्थ नहीं होता वह लाख सहायता पाने पर भी उसे नहीं कर सकता, जैसे जन्मान्ध मनुष्य सूर्य के प्रोज्ज्वल प्रकाश में अब्जन, उपनेत्रक आदि के द्वारा भी पास में पड़ी चीजों को नहीं देख पाता। तीसरा प्रयोजन भी युक्तिसंगत नहीं है, क्योंकि कारण यदि अपने कार्य में समर्थ हो तो उसे किसी सहायक की कोई आवश्यकता नहीं और यदि असमर्थ हो तो सहस्रों सहायकों का सहयोग होने से भी कोई लाभ नहीं। इस पर नैयायिक की ओर से यह कहा जा सकता है कि कारण को सहकारिसापेक्ष मानने में जब ये दोष हैं तब उसे सहकारिसापेक्ष नहीं माना जायगा किन्तु कार्य को ही सहकारिसापेक्ष माना जायगा । तात्पर्य यह हैं कि एक कारण मात्र से भी किसी कार्य की उत्पत्ति नहीं होती किन्तु कारणसमुदाय से होती है, अर्थात् किस कार्य के जितने कारण होते हैं उन सबों के एकत्र होने पर ही वह कार्य होता है। अतः कार्य अपने स्वरूपलाभ के लिये अपने सभी कारणों की अपेक्षा करता है। क्रम से होने वाले विभिन्न कार्यक्रम से ही कारणसमुदाय का सह-अवस्थान प्राप्त करते हैं, अतः क्रम से ही उनका जन्म होता है। इस प्रकार स्थायी पदार्थ में क्रमकारिता मान्य हो सकती है, परन्तु यह भी ठीक नहीं है । क्यों कि कार्य स्वतन्त्र नहीं होता किन्तु कारण-परतन्त्र होता है, और जोपरतन्त्र होता है वह स्वतन्त्र रूप से किसी की अपेक्षा नहीं कर सकता, किन्तु जिसके परतन्त्र होता है उसके द्वारा ही किसी की अपेक्षा कर सकता है। अतः जब कारण सहकारिसापेक्ष नहीं होता तो कार्य सहकारिसापेक्ष कैसे हो सकता है ? कारण के सहकारिसापेक्ष होने में प्रयोजनानुपपत्ति तो बाधक है ही। साथ ही अपेक्षा पदार्थ की अनिर्वचनीयता भी बाधक है। जैसे कारण सहकारियों की अपेक्षा करता है- इससे कारण का कौन सा स्वभाव वर्णित होता है ? ( १ ) कारण सहकारी कारणों के सन्निधान में कार्य को उत्पन्न करता है यह स्वभाव, ( २ ) कारण सहकारी कारणों के असन्निधान में कार्य को नहीं उत्पन्न करता-यह स्वभाव, ( ३ ) अथवा कारण सहकारि कृत उपकार को पाकर कार्य को उत्पन्न करता है यह स्वभाव, इनमें प्रथम पक्ष ठीक नहीं है क्यों कि उस पक्ष में सहकारी का सन्निधान प्राप्त करना तथा उसे प्राप्त कर कार्य उत्पन्न करना-ये दोनों अंश कारण Aho ! Shrutgyanam
SR No.034199
Book TitleJain Nyaya Khanda Khadyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay, Badrinath Shukla
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1966
Total Pages200
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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