SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 461
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ हरीतक्यादिनिघण्टुः भा. टी.। (१९) प्रस्थाद्धपरिमाणेन दनाऽम्लेन प्रलेपयेव ॥ १२३ ॥ द्विपस्थः समितां तत्र दध्यम्लं प्रस्थसम्मितम् । घृतमद्धशरावञ्च घोलयित्वा घृतं क्षिपेत् ॥ १२४॥ आतपे स्थापयेत्तावद्यावद्याति तदम्लताम् । ततस्तत्प्रक्षिपेत्पात्रे सच्छिद्रे भाजने तु तत् ॥१२॥ परिभ्राम्यपरिभ्राम्य तत्सन्तप्ते घृते क्षिपेत् । पुनः पुनस्तदावृत्त्याविदध्यान्मण्डलाकृतिम्॥१२६॥ तां सुपक्वां घृतानीत्वा सितापाके तनुवे । कर्पूरादिसुगन्धञ्च स्थापयित्वोद्धरेत्ततः ॥ १२७ ॥ एषा कुंडलिनी नाम्ना पुष्टिकान्तिबलप्रदा। धातुवृद्धिकरी वृष्या रुच्या च क्षिप्रतपणी ॥१२८॥ नवीन मृत्तिकाके पडेमें आधसेर खट्टे दही का लेप कर देवे पश्चात दोसेर मैदा उसमें डाले और एक्सेर दही तथा प्राधसेर घृत घोलकर जबतक खट्टा न हो तबतक धूपमें रखा रहने दे पश्चात जिस बासनमें नीचे छेद हो उस पात्र में करके नीचे घृत भरी हुई कढामें गोल २ करके छोडता जाय, जब वह सिक जाय तब घी में से निकालकर कपूर भादिसे सुगंधित हुई खांडकी चासनी में डाल देवे और पश्चात निचोडकर निकाल ले उसको कुंडलिनी (जलेबी) कहते हैं। यह जलेबी पुष्टिकारक, कांदिकारक, बरदायक, धातुवर्द्धक, वृष्य, रुचिकारक और तुरन्त वृप्तिकारक है:॥ १२३-१२८॥ अथ पश्चात् परिवेष्याणि। रसाला ( सिखरन)। आदौ माहिषमम्लमंबुरहितं दध्याढकं शर्करा शुभ्रांतस्थयुगोन्मितां शुचिपटेकिञ्चिच्च किंचित्क्षपेत् ho! Shrutgyanam
SR No.034197
Book TitleHarit Kavyadi Nighantu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhav Mishra, Shiv Sharma
PublisherKhemraj Shrikrishnadas
Publication Year1874
Total Pages490
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy