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________________ हरीतक्यादिनिघण्टुः भा. टी.। (३३१) बलकृबृंहण वृष्यं विशेषाज्ज्वरनाशनम् । वर्षादूबै भवेदाज्यं पुराण तत्रिदोषनुत् ॥ १६॥ मूर्छाकुष्ठविषोन्मादापस्मारतिमिरापहम् । यथायथाखिलं सर्पिः पुराणमधिकं भवेत् । १७ ॥ तथातथा गुणैः स्वैःस्वैरधिकं तदुदाहृतम् । योजयेत्रवमेवाज्यं भोजने तर्पणे श्रमे ॥ १८ ॥ बलक्षये पांडुरोगे कामलानेत्ररोगयोः।। राजयक्ष्मणि बाले च वृद्धे श्लेष्मकृते गदे ॥ १९॥ रोगे सामे विषूच्यां च विबंधे चमदात्यये । ज्वरे च दहने मंदे न सर्पिबई मन्यते ॥ २० ॥ इति घृतवर्गः। पहिने दिनके जमाए हुए दृधमेंसे निकाला हुआ घी हैयंगवीन कहा जाता है। रेयंगान-नेत्रोंको हितकारी, दीपन, रुचिकारक, बलवर्धक, बृंहण, वृष्य, विशेष कर ज्वरनाशक होता है। एक वर्षका पुराना घी-त्रिदोषनाशक, मूच्र्छा, कुष्ट, विष, उन्माद, अपरमार पौर तिमिरको दूर करता है । जैसे जैसे घी अत्यन्त पुराना होता है, वैसे २ रोगनाशक गुणों में अधिक होता जाता है। त्रिदोषजनित और विषजनित विकारों को दूर करने के लिये पुराने घीकी प्रशंसा है। - भोजनमें तृप्त करने के लिये, थकावट दूर करनेके लिये, बलायमें पाण्डु रोगमें, कामहमें, मन्द दृष्टि होनेपर नेत्ररोगों में नवीन घीका ही उपयोग करना चाहिये। राजयक्ष्मामें बच्चों और बूढे को रोगों में कफप्रधान रोग में, साम
SR No.034197
Book TitleHarit Kavyadi Nighantu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhav Mishra, Shiv Sharma
PublisherKhemraj Shrikrishnadas
Publication Year1874
Total Pages490
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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