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________________ हरीतक्यादिनिघण्टुः भा. टी. । (३२५ ) लघु होता है। जिसमें से थोड। मक्खन निकाल लिया हो वह भारी, वीर्य वर्धक और कफकारक है। जिससे घृत नहीं निकाला वह गाढा, भारी और पुष्टि तथा कफकारक होता है ॥ १० ॥ वातेऽम्लं शस्यते तत्रं शुण्ठी सैंधव संयुतम् ॥ ११ ॥ पित्ते स्वादु सितायुक्तं सव्योषमधिकं कफे | हिंगु जीरgतं घोल सैंधवेन च संयुतम् ॥ १२ ॥ भवेदतीव वातघ्नमर्शोतीसारहृत्परम् । सुरुच्यं पुष्टिं बल्यं वस्तिशूलविनाशनम् ॥ १३ ॥ वातमें सोंठ और सेंधव नमक से युक्त खट्टा तक देना योग्य है । पिनमें - मधुर तथा बूरा से युक्त तक देना चाहिये । तथा कफमें सोंठ, मिरच, पीपलयुक्त तक देना चाहिये । हींग जीरा और सैंधव डालकर पिया हुआ घोल - वातको अत्यन्त नष्ट करनेवाला, अशें तथा अतिसार को जीतने वाला, रुचिकारक, पुष्टिदायक, बलवर्धक तथा वस्तिके शुलको दूर करनेवाला होता है ॥ ११-१३ ॥ मूत्रकृच्छ्रे तु सगुडं पांडुरोगे सचित्रकम् । तक्रमामं कर्फ कोष्ठे हंति कण्ठे करोति च ॥ १४ ॥ पीनसश्वासकासादौ पक्कमेव प्रयुज्यते । शीतकालेऽग्निमांद्ये च तथा वातामयेषु च ॥ १५ ॥ अरुचौ स्रोतसां रोधे तकं स्यादमृतोपमम् । तत्र हंति गरच्छर्दि से कविषमज्वरान् ॥ १६ ॥ पांडुमेदोग्रहण्यर्शोमूत्र ग्रह भगन्दरान् । मेहं गुल्ममतीसारं शूल प्लीहोदरारुचीः ॥ १७ ॥
SR No.034197
Book TitleHarit Kavyadi Nighantu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhav Mishra, Shiv Sharma
PublisherKhemraj Shrikrishnadas
Publication Year1874
Total Pages490
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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