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________________ (३२३) हरीतक्यादिनिघण्टुः भा. टी.। तक्रवर्गः १३, घोलं तु मथितं तकपुदश्विच्छच्छिकापि च ।। ससरं निर्जलं घोलं मथितं त्व सरोदकम् ॥ १॥ तकं पादजलं प्रोक्तमुदिश्वित्ववारिकम् । छच्छिका सारहीना स्यात्स्वच्छा प्रचुरवारिका ॥२॥ तक पांचप्रकारका है, बोल, मथि न, तक, उदश्वित् और छच्छिका। विना जल डाले मलाई सहित विलोये हुए दही को घोल कहते हैं। मलाई उतार कर बिना जल डाले जो दही विलोश जाय उसे प्रथित कहते हैं। जिस दही में चतुर्थ भाग जक डालकर पिलोया जाय उसको तक वहते हैं। जिस दहीमें ग्राधा जल डाल कर विलोया जाय उसको उदश्चित कहते हैं। तथा जिल दहीमेंसे माखन निकाल लिया हो और जो स्वच्छ तथा अत्यन्त जलवाळा हो उसको छच्छि का कहते हैं ॥१॥२॥ घोलं तु शर्करायुतं गुणैर्तेयं रसालवत । वातपित्तहरं हादि मथितं कफपित्तनुत् ॥ ३ ॥ तकं ग्राहि कषायाम्लं स्वादुपाकरसं लघु । वीर्योष्णं दीपनं वृष्यं प्रीणनं वातनाशनम् ॥ ४॥ ग्रहण्यादिमतां पथ्यं भवेत्संग्राहि लाघवात् । किंचित्स्वादुविपाकित्वान्न च पित्तप्रकोपनम् ॥२॥ कषायोष्णं दीपनं वृष्यं प्रीणनं वातनाशनम् । कायोगविकाशित्वाद्रौशाचापि कफापहम् ॥६॥ खाण्ड डालकर पिश हुमा घोल रताला समान गुणों वाला होता है, तथा वातपित्तनाशक और म को पसन्न करनेवाला होता है ।
SR No.034197
Book TitleHarit Kavyadi Nighantu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhav Mishra, Shiv Sharma
PublisherKhemraj Shrikrishnadas
Publication Year1874
Total Pages490
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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