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________________ हरीतक्यादिनिघण्टुः भा. टी. । तुत्थं कांस्यं च रीतिश्व सिंदूरश्च शिलाजतु । उपधातुषु सर्वेषु तत्तद्धातुगुणा अपि ॥ ५७ ॥ संति किं तेषु ते गौणास्तत्तदंशाल्पभावतः । स्वर्णदि धातुओं की सात उपधातुएँ होती हैं। जैसे सोनामंक्खी/ रूपामक्खी, तुत्थ, कांसी, पित्तल, सिंदुर और शिलाजीत । इन सात उपधातुओं में इनकी अबली धातुओंके से गुण रहते हैं। क्योंकि गौण रूपसे उनही धातुयोंका अल्प भावसे अंश इनमें रहता है इसलिये अल्पभाव से यह उनकासा ही गुण करती हैं। हमारे मतमें कांसी और पीतलको उपधातु नहीं मानना चाहिये क्योंकि दो दो शुद्ध धातुयोंसे कांसी और पीवल बनाई जाती है। तांबे और बंग में मिलानेसे कांसी, तांबा पौर जस्तके मिलानेसे पीतळ बनता है । इसलिये इनको कृत्रिम या संयोगज धातु मानना चाहिये ॥ ५६ ॥ ५७ ॥ स्वर्णमाक्षिकम् । ( २२१ ) स्वच्छ माक्षिकमाख्यातं तापीजमधुमाक्षिकम् ॥५८॥ ताप्यं माक्षिकधातुश्च मधुधातुश्च स स्मृतः । किंचित्सुवर्ण साहित्यात्स्वर्णमाक्षिक्रमीरितम्॥५९॥ उपधातुः सुवर्णस्य किंचित्स्वर्णगुणान्वितः । तथा च कांचनाभावे दीयते स्वर्णमाक्षिकम् ॥ ६० ॥ किंतु तस्यानुकल्पत्वात् किंजिदूनगुणं ततः । न केवलं स्वर्णगुणो वर्तते स्वर्णमाक्षिके ॥ ६१ ॥ द्रव्यांतरस्य संसर्गात्सत्यन्येऽपि गुणा यतः । सुवर्णमाक्षिकं स्वादु तिक्कं वृष्यं रसायनम् ॥ ६२ ॥ चक्षुष्यं वस्तिरुक्कुष्ठपांडुमेह विषोदरान् । अर्श: शोथं विषं कंडु त्रिदोषमपि नाशयेत् ॥ ६३ ॥
SR No.034197
Book TitleHarit Kavyadi Nighantu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhav Mishra, Shiv Sharma
PublisherKhemraj Shrikrishnadas
Publication Year1874
Total Pages490
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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