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________________ 'हरीतक्यादिनिघण्टुः भा. टी.। (१२९) भिषग्वरैर्यथानाम फलञ्चापि प्रकीर्तितम् ॥ २२९॥ कांडं त्वविरहितमस्थिशृंखलाया, माषा द्विदलमकंचुकं तदर्दम् । संपिष्टं तदनु ततस्तिलस्य तैले, . संपकं वटकमतीव वानहारि ॥ २३० ॥ ग्रोथमान, अस्थिसंहारी, वज्रांगी, अस्थिशृङ्खना यह पस्थिसंहारीके नाम हैं। हिन्दीमें इसे हडजोरी कहते हैं। अस्थिसंहारी--वात, कफनाशक, हडूडीको जोडनेवाली, गरम, दस्तावर, कृमिघ्र, अर्शनाशक, नेत्ररोगहर, रूक्ष, मधुर, हलकी, वीर्यधिक, पाचन और पित्तकारक है वद्योंने इसके नामके माफिक ही इसके फलको भी कथन किया है। अस्थिसंहारीका त्वचारहिन कांड लेकर उससे पाधी हिल्का रहित उडदकी दान लेकर दोनोंको बारीक पील टिकिया बगकर तिलोके तेलमें पकावे, यह सम्पूर्ण वातविकारोंको दूर करती है ।। २२७--२३० ।। महाजालनी। महाजालनिका चर्मरंगः स्यात्रीलपुष्पिका । आवर्तकी तिदुकिनी विभांडी रक्तपुष्पिका ॥२३॥ महाजालनिका तिता रेचनी कफपित्तजित् । हंति दाहोदरानाहशोफकुष्ठकफज्वरान् ॥ २३२ ॥ महाजाननिका, चर्मरंग, नलिपुष्पिका, आवर्तकी, ति दुकिनी, विभांडी और रक्तपुष्पिका, यह जंगली कड़वी तुरईके नाम हैं। महाजालनी-- विक्त, दस्तावर, कफ पिन, दाह, उदारोग, अफारा, सूजन, कुष्ठ, कफ और ज्वरको हरनेवाली है।। २३१ ॥ २३२ ।। Aho! Shrutgyanam
SR No.034197
Book TitleHarit Kavyadi Nighantu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhav Mishra, Shiv Sharma
PublisherKhemraj Shrikrishnadas
Publication Year1874
Total Pages490
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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