SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 51
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ [२९] तयार कर अपने सर्वांश परमभक्त परिवारकी शोभाको बढा सकेथे । और वादशाहकी तर्फसे आग्रह पूर्वक दिये हुए " जगद् गुरु" विरुदको पाकर जिनशासन सुरतरुकी शीतल छाया नीचे सहस्त्रों नही बल्कि लाखों मनुष्योंको शान्तिपूर्वक बैठा सकेथे । आप अढाई हजार साधु साध्वियोंके मालिक थे। पितातुल्य पुत्र प्रायः संसारके भाग्यवानों के कुटुम्बोंमें देखे जाते हैं। ___ आचार्य श्रीविजयसेनसरिभी बडे प्रभावक आर समर्थ थे । योगशास्त्रके आद्य श्लोकके सातसौ अर्थ करनेकी प्रतिभा इनकी हीथी । जैसी जगद्गुरु महाराजकी अपने गुरु विजयदानमूरिजीके प्रति भक्ति थी वैसीही विजयसेनमूरिजीकी अपने गुरु श्री विजय हीरमूरिजीके प्रतिथी । पंजाब देश के पाटनगर " लाहोर" में आपके दो चौमासे हुए । दूसरे चउमासेमे आपको समाचार मिलाकि-आपके गुरु महाराज सखत बीमार हैं ! तब आपका मन घबरा उठा । अपने गुरु महाराजके अंतिम दर्शनोंके लिये आपने वहांसें विहार किया। बडे शीघ्र प्रयाणसे आप Aho! Shrutgyanam
SR No.034195
Book TitleGirnar Galp
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalitvijay
PublisherHansvijay Free Jain Library
Publication Year1921
Total Pages154
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size5 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy