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________________ [१११] ॥ सहस अढासय आठ ।। हु लोढी उणो ए पाठ ॥ २८ ॥ श्री पर्वत दक्षिणे जाण || प्रभास पछमे वखाण ॥ उत्तरे केदारह कैये ।। पूरवइ बाह्या रसी लइए ॥ २९ ॥ इण दीसे दान जगोशे ॥ किरति वीस्तरी चिहू दीसे ।। खट दर्शन कल्पवृक्ष, पाम्यो बिरुद ते परतक्ष ॥ ३० ।। वर्ष अढारमा प्रसिद्ध ।। ए करणि करी सांवे सिद्ध ।। ते विद्यमान केहवाए ॥ आज लगि किर्ति बोलाए ॥ ३१ ॥ श्री रत्नाकरसूरी, उपदेश थथा पून्य पुरि ॥ सा पेयड सुविचार || बाणुं ते जैन विहार। शेर्बुजे आदि जिन भुवने । घटिका एकवीश सुवने ॥ विद्रविराख्यु एम नाम ।। आ ससि सुरज जाम ॥ ३३ ॥ तस सुत झाझण सार ॥ सोवन धजा गिर नार ।। नेमि प्रासाद करावि ।। श्री सिद्धाचल थकी आवि ॥ ३४ ॥ श्री जयतिलक सुरेंद जस । उपदेशे आनंद । श्रीश्रीमालि विभुषण ॥ हरपति साह विचक्षण ॥३' । विक्रमरायथि वरशें ई ॥ चौदशे ओ. गण पंचाशे । रेवत प्रासादे नेम ॥ उधरियो अति Aho! Shrutgyanam
SR No.034195
Book TitleGirnar Galp
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalitvijay
PublisherHansvijay Free Jain Library
Publication Year1921
Total Pages154
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size5 MB
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