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________________ धातूत्पत्तिा नरनाह गिहे संखं वृड्किरं रज्जि रहि भण्डारे । इयराण य रिद्धिकरं अंतिमजाईण हाणिकरं ॥३५।। दाहिणवत्ते संखे खोरं जो पियइ कय कुलच्छी य । सा वंझा वि पसूवइ गुणलक्खणसंजुयं पुत्तं ॥३६॥ ___ इति दक्षिणावर्त सङ्खः । दीवंतरि सिवभूमी सिवरुवखं तत्थ होन्ति रुद्दक्खा। एगाइ जा [च] उद्दस वयणा सव्वेवि सुपवित्ता ॥३७॥ पर उत्तमेगवयणा सिरिनिलया विग्घनासणा सुहया। कणयजुय कण्ठ सवणे भुय सीसे संठिया सहला ॥३८।। दुमुहा मंगलजणया तिमुहा रिवहरण चउर मज्झत्था । पंचमुहा पुन्नयरा सेसा सुपवित्त सामन्ना ॥३९।। इति रुद्राक्षाः। ३५. राजा के घर में यदि शंख हो तो राज्य, राष्ट्र, भण्डार आदि वृद्धि करता है एवं अंतिम जाति (शुद्र) को हानिकारक होता है। ३६. दक्षिणावर्त शंख में यदि कोई कुलवती स्त्री दूध डाल कर पिये तो बंध्या भी गुण लक्षण संयुक्त पुत्र उत्पन्न करती है। रुद्राक्ष : ३७. द्वीपान्तर में शिवभूमि में शिववृक्ष हैं । वहाँ रुद्राक्ष उत्पन्न होते हैं। एक से दश या चौदह मुख वाले सभी सुपवित्र हैं। ३८. परन्तु एकमुखी उत्तम है। वह धीनिलय, विघ्नहर और सुभग है। सोने के साथ कण्ठ, कान, भुजा और मस्तक पर पहनने से फल देता है। ३९. दुमुहा मंगलजनक, त्रिमुख शत्रुहरण चतुर्मुख मध्यस्थ, पंचमुखी पुण्यकर और शेष सामान्य सुपवित्र है। शालग्राम' : उपनिषदों में जलंधर राक्षस द्वारा वृन्दा का अपहरण और भ० विष्णु द्वारा उसे हनन कर वृन्दा का उद्धार होना बतलाया है। यह एक रूपक है। वस्तुतः जलंधर मेघ है और वृन्दातुलसी है जिसे विद्युत् वृक्ष कहते हैं। बदरिकाश्रमोपरि मेघ के विद्युत् प्रभाव से श्याम हुए पत्थर और उसके चक्रास ही नदी में लुढ़कते गोल होकर शालग्राम का रूप धारण करते हैं। शालग्राम और तुलसी के जल के प्रयोग से मेघ का विद्युत निष्प्रभ हो जाता है। इसी कारण हिन्दू घरों में वर्षा के प्रारम्भ में गृहाङ्गण में तुलसी लगा कर पूजते हैं और चातुर्मासान्त में विसर्जन होता है। इसका रहस्य है कि तुलसी के बारहबारह फुट तक बिजली नहीं गिरती। Aho! Shrutgyanam
SR No.034194
Book TitleDravya Pariksha Aur Dhatutpatti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorThakkar Feru, Bhanvarlal Nahta
PublisherPrakrit Jain Shastra Ahimsa Shodh Samsthan
Publication Year1976
Total Pages80
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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