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________________ ( २५ ) निर्धारित करने में कठिनाई होती है। ऐसी परिस्थिति में इन के संबंध जांचने के साधारण नियम यह हैं (१) पाठ-लोप और पाठ-व्यत्यय-जब अनेक प्रतियों में पाठ-लोप अथवा पाठव्यत्यय समान रूप से हो तो उन प्रतियों का पारस्परिक सम्बन्ध घनिष्ठ होता है । इन में से लोप तो अधिक प्रामाणिक है क्योंकि यह बात प्रायः संभव नहीं होती कि अनेक प्रतियों में एक ही पाठ लुप्त हो गया हो। यह भी नहीं होता कि किसी प्रति में अन्य प्रतियों का मिलान करके पाठ लोप किया गया हो। इस से यह भी सिद्ध हो सकता है कि एक प्रति दूसरी प्रति का आदर्श है। इसी प्रकार अनेक प्रतियों में समान पाठव्यत्यय भी उन के लिपिकारों ने अपने आदर्श से ही लिया होता है ! (२) अब अनेक प्रतियों में विशेष पाठों का स्वरूप समान हो या उन प्रतियों को विशेषताएं समान हों, तो उन में परस्पर सम्बन्ध होता है । मॅकडोनॅल ने बृद्देवता के संस्करण में जिन प्रतियों का प्रयोग किया उन में से 'h', 'm', 'n' औ 'd' परस्पर संबद्ध हैं क्योंकि उन सब के अन्त में “अमोघनन्दनशिक्षायां लक्षणस्य विरोधोऽपि .........शौनककारिकायामुक्तम्"--यह पाठ समान रूप से मिलना है जो अन्य प्रतियों में नहीं मिलता। इसी प्रकार इन में बृहद्देवता से ही संकलित "अथ वैश्वदेवसूक्ते देवताविचार: -भिन्ने सूक्ते वदेदेव च" ( १. २० ) आदि कुछ उद्धरण समान रूप में प्राप्त होते हैं। (३) अब अादर्श और प्रतिलिपि दोनों उपलब्ध हों तो उनके निरीक्षण से यह संबंध ज्ञात हो जाता है। यदि एक प्रति में कुछ ऐसी विचित्र अशुद्धियां हों जिन का समाधान किसी अन्य प्रति के अवलोकन से हो जाए तो दूसरी प्रति पहली का आदर्श होती है। प्रायः देखा जाता है कि दो प्रतियों का परस्पर संबंध इतना शुद्ध और सरल नहीं होता जितना कि हम ऊपर मानते रहे हैं। यह आवश्यक नहीं कि कोई प्रति किसी एक ही आदर्श के आधार पर लिखित हो। संभव है कि लिपिकार ने दूसरी प्रतियों की सहायता लेकर अपने पाठ बनाए हों । इसी कारण जो प्रतियां अंतत: एक ही मूलादर्श से लिखित हों उन में भी प्रायः पूर्ण समानता नहीं होती। उन में कुछ न कुछ अंतर अन्य आदर्शों के कारण आ जाता है । इस से ज्ञात हुआ कि प्रतियों का परस्पर संबंध दो प्रकार का है-शुद्ध और संकीण । १. ए० ए० मॅक्डौनल संपादित बृहद्देवता, भाग १, भूमिका पृ० १३-१४ । Aho ! Shrutgyanam
SR No.034193
Book TitleBharatiya Sampadan Shastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMulraj Jain
PublisherJain Vidya Bhavan
Publication Year1999
Total Pages85
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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