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________________ ( १० ) हटती जाती है, त्यों त्यों उस में अशुद्धियों की संख्या भी बढ़ती जाती है। उदाहरणार्थ कल्पना कीजिए कि किसी कृति की प्रति 'क' पूर्ण रूप से शुद्ध है अर्थात् शत प्रतिशत शुद्ध है । इस प्रति 'क' से एक प्रतिलिपि 'ख' तय्यार की गई और इस प्रतिलिपि 'ख' से एक और प्रतिलिपि 'ग' बनाई गई । प्रत्येक लिपिकार कुछ न कुछ अशुद्धियां अवश्य करता है - मान लीजिये कि प्रथम लिपिकार ने ५ प्रतिशत अशुद्धियां कीं और दूसरे ने भी इतनी ही। तो 'ख' और 'ग' की शुद्धता ६५ और ६०२५ प्रतिशत रह जावेगी । इसी प्रकार यदि 'ग' से 'घ' प्रतिलिपि की जाए तो इस 'घ' को शुद्धता केवल ८५'७४ प्रतिशत रह जावेगी । इसलिए किसी प्रति की पूर्वपूर्वता काफ़ी हद तक उस की शुद्धता का द्योतक होती है। प्रतियों की विशेषताएं प्रतियों की सामग्री - प्राचीन प्रतियां प्रायः ताड़पत्र, भोजपत्र, काराज, और कभी कभी वस्त्र, लकड़ी, धातु, चमड़ा, पाषाण, ईंट, आदि पर भी मिलती है । पंक्तियां – प्राचीन शिलालेखों का खरड़ा बनाने वाले पंक्तियों को संधा पर रखने का प्रयत्न करते थे । अशोक की धर्मलिपियों में यह प्रयत्न पूर्णतया सफल नहीं हुआ, परंतु उसी काल के अन्य लेखों में सफल रहा है । केवल उन्मात्राएं (F, 7, ) ही रेखा से ऊपर उठनी हैं। प्राचीन से प्राचीन पुस्तकों में पंक्तियां प्रायः सीधी होती हैं। प्राचीन ताड़पत्र और काग़ज़ की पुस्तकों में पृष्ठ के दाई और बाई ओर खड़ी रेखाएं होती हैं जो हाशिए का काम देती हैं । ९ 3 " 3 एक चौड़ी पाटी पर निश्चित अंतरों पर सूत का डोरा कम देते थे, इस पर पत्रादि रख कर दबा दिए जाते थे जिस से उन पर सीधी रेखाओं के निशान पड़ जाते थे । इन पर लिखा जाता था । शब्द-विग्रह- पंक्ति, लोक या पाद के अंत तक शब्द साधारणतया एक दूसरे के साथ जोड़ कर लिखे होते हैं । परंतु कुछ प्राचीन लेखों में शब्द जुदा जुदा हैं। कई प्रतियों में समस्त पद के शब्दों को जुदा करने के लिए छोटी सी खड़ी रेखा शब्द के अंत में शीर्ष रेखा के ऊपर लगा दी जाती थी । विराम चिह्न - खरोष्टी शिलालेखों में विराम-चिह्न नहीं मिलते, परंतु धम्मपद् में प्रत्येक पद्य के अंत में बिंदु से मिलता जुलता चिह्न पाया जाता है और वर्गों के अंत में बैसा ही चिह्न मिलता है जैसा कई शिलालेखों के अंत में होता है जो शायद कमल का सूचक है । ब्राह्मी लिपि के लेखों में कई प्रकार के विराम-चिह्न हैं । → - Aho! Shrutgyanam
SR No.034193
Book TitleBharatiya Sampadan Shastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMulraj Jain
PublisherJain Vidya Bhavan
Publication Year1999
Total Pages85
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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