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________________ वि. प्र. 11 9 6 11 कहते हैं वह स्तंभसे हीन घरसे बाहिरको निकसा हुआ काष्ठका होता है ॥ ११३ ॥ गृहके मध्य से उर्ध्वभाग में गयाहुआ जो घर है कोई उसे अलिन्द कहते हैं, जिस भाग में अलिन्द हो उसीमें द्वारका मार्ग श्रेष्ठ कहा है ॥ ११४ ॥ अलिंद और द्वारसे हीन गृह कोटिके समान ॐ कहा है जहां अलिन्द हो वहीं शाला और द्वार श्रेष्ठ कहा है ॥ ११५ ॥ शाला अलिन्द द्वार इनसे हीन गृहको बुद्धिमान मनुष्य न बनवावे, जो वास्तुका विस्तारहो उतनीही ऊँचाई शुभ कही है ॥ ११६ ॥ विस्तारसे दूना शुकशालनामक गृह बनवाना, दश और चार शालाके मध्यादूर्ध्वगतं गेहं तच्च वालिन्दसंज्ञकम् । यत्रालिन्दञ्च तत्रैव द्वारमार्ग प्रशस्यते ॥ ११४ ॥ अलिन्द् द्वारहीनञ्च गृहकोटी समं स्मृतम् । यत्रालिन्दं तत्र शाला तंत्र द्वारे च शोभनम् ॥ ११५ ॥ शालालिन्दद्वारहीनं न गृहं कारयेद्बुधः । यद्वास्तुनि च विस्तारः सैवोच्छ्रायः शुभः स्मृतः ॥ १११६ ॥ शुकशालो गृहः कार्यो विस्ताराद्दिगुणो दश । चतुःशालगृहस्यैवमुच्छ्रायो व्याससम्मितः ॥ ११७ ॥ विस्तारादिगुणं दैर्घ्यमेकशाले प्रशस्यते । विस्तीर्ण यद्भवेदं तदूर्ध्वं त्वकशालकम् ॥ ११८ ॥ दिशाले द्विगुणं प्रोक्तं त्रिशाले त्रिगुणं तथा । चतुश्शाले पञ्चगुणं तदूर्ध्वं नैव कारयेत् ॥ ११९ ॥ शिखा चैव त्रिभागं तु गृहं चोत्तमसंज्ञकम् । एकं नागोडसंशुद्धया द्वे च दक्षिणपश्चिमा ॥ १२० ॥ गृहकी ऊँचाई व्यासके समान होती है ॥ ११७ ॥ विस्तारसे दूनी लंबाई एकशाला ( एकमजला ) गृहकी होती है जो गृह विस्तीर्ण | होता है वह ऊँचाईमें एक शालाका होता है ॥ ११८ ॥ द्विशालमें दूना और त्रिशालमें त्रिगुणा कहा है और चतुःशाल में पंचगुणा जानना उससे ऊपर गृहको न बनवावे ॥ ११९ ॥ जिसकी शिखा गृहके त्रिभागकी हो वह उत्तमसंज्ञक होता है यदि एकशाला गृहकी आजाय तब आठ और सताईसकी संशुद्धि (भाग) से सौम्यवर्जित अर्थात् उत्तरशालासे हीन करना और यदि दोशालाओंसे युक्त घर बनाना होय भा. टी. अ. २ ॥ १८ ॥
SR No.034186
Book TitleVishvakarmaprakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUnknown
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages204
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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