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________________ २४ पूर्व उत्तर में ध्वजा होय तो बैलोंको महापीडा करनेवाले कहे हैं, जंबीर, पुष्पके वृक्ष, पनस, अनार १०० ॥ जाती चमेली शतपत्र ( कमल) केशर नारियल पुष्प और कर्णिकार ( कनेर ) इनसे ॥ १०१ ॥ वेष्टित (ढका ) जो घर हैं वे मनुष्योंको संपूर्ण सुखके दाता होते हैं, पहिले वृक्षोंको लगाकर पीछेसे गृहों को बनावे ॥ १०२॥ यदि अन्यथा करें तो वह घर शोभन नहीं होता प्रथम नगरका विन्यास करे अर्थात् नगरकी भूमिका निर्णय करे पीछेसे घरोंको बनवावे ॥ १०३ ॥ यदि अन्यथा करे तो शुभको न करें अर्थात् वह घर शुभदायी नहीं होता. पूर्व पूर्वोत्तरे ध्वजोक्षाणां महापीडाकरौ मतौ । जम्बीरैः पुष्पवृक्षैश्च पनसैर्दाडिमैस्तथा ॥ १०० ॥ जातीभिर्महिकाभिश्च शतपत्रैश्व केसरैः ॥ नालिकेरैश्च पुष्पैश्च कर्णिकारैश्च किंशुकैः ॥ १०१ ॥ वेष्टितं भवनं नृणां सर्वसौख्यप्रदायकम् । आदौ वृक्षाणि विन्यस्य पश्चाद् गेहानि विन्यसेत् ॥ १०२ ॥ अन्यथा यदि कुर्यान्नु तद्गृदं नैव शोभनम् । नगरं विन्यसेदादौ पश्चाद्रेहानि विन्यसेत् ॥ १०३ ॥ अन्यथा यदि कुर्वाणस्तदा न शुभमादिशत्। पीताऽथ पूर्वे कपिला हुताशे याम्ये च कृष्णा निर्ऋतौ च श्यामा | शुक्ला प्रतीच्यां हरिताऽथ वायौ श्वेताथ सौम्ये घवला च ईशे ॥ १०४ ॥ ईशानपूर्वयोर्मध्ये श्वेता पश्चिमनैर्ऋते । तयोर्मध्ये रक्तवणी पताका परिकीर्तिता ॥ १०५ ॥ सर्ववर्णा तथा मध्ये पताका किंकिणीयुता । बाहुप्रमाणा कर्तव्या स्तम्भं बाहुप्रमाणकम् ॥ १०६ ॥ दिशामें पीलीपताका, अग्निकोणमें कपिलवर्णकी, दक्षिणमें काली, नैर्ऋतिमं श्यामा, पश्चिममें शुक्ल, वायव्यमें हरी, उत्तर में सफेद और ईशा नमें धवलपताका होती है॥ १०४॥ ईशानपूर्वके मध्य में सफेद और पश्चिमनैर्ऋतके मध्य में रक्तवर्णकी पताका कहीहै ।। १०५ ॥ किंकिणी ( झालर ) ( से युक्त संपूर्ण (वर्ण) रंडकी पताका मध्यमें होती है. वह भुजाके प्रमाणकी होती है. उसका स्तंभभी भुजाके प्रमाणका होता है ॥ १०६ ॥
SR No.034186
Book TitleVishvakarmaprakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUnknown
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages204
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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