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________________ बि.प्र. H९५ ।। जो घर पर्वतकी भूमिके ऊपर हो वा जो घर पर्वतके नीचे भागमें हो ॥ ३१ ॥ जो घर पत्थरोंसे मिला हो वा पाषाणोंसे युक्त घोर हो वा जो धाराके अग्रभागमें स्थित हो वा पर्वतके मध्य में मिला हो ॥ ३२ ॥ जो नदीके तीरमें स्थित हो, दो शृंगों (शिखर) के अंतर्गत हो, जो घर भित्ति योंसे भिन्न हो, जो सदैव जलके समीप हो ॥ ३३ ॥ जिसका द्वार रोताहुआ हो अर्थात् उदासीन हो जिसमें काक और उल्लुओं का निवास हो, जो कपाट और छिद्रोंसे हीन हो, जिसमें शशका शब्द हो ॥ ३४ ॥ जिसमें अजगर सर्पका निवास हो, जो वञ्च और अग्निसे दूषित हो यद्वेहं चाश्मसलग्नं घोरं पाषाणसंयुतम् । धाराग्रसंस्थितं वापि संलग्नान्तरपर्वते ||३२|| नदीतीरस्थितं वापि शृङ्गान्तरगतं तथा । भित्तिभिन्नं तु यहं सदा जलसमीपगम् ॥ ३३ ॥ रुदन्तं द्वारशब्दार्थ काकोलूकनिवासितम् । कपाटच्छिद्रहीनं च रात्रौ च शश नादितम् ||३४|| स्थूलसर्पनिवासं च यच्च वज्राग्निदूषितम् । जलस्रावान्वितं भीरु कुब्जे काणं बधीरकम् ॥ ३५ ॥ यच्चोपघातादि भवं ब्रह्महत्यान्वितं तथा । शालाविहीनं यच्चापि शिखाहीनं तथैव च ॥ ३६ ॥ भित्तिबाह्यगतैर्दारुकाष्ठे रुधिरसंयुतम् । कृतं कण्टकि संयुक्तं चतुष्कोण तथैव च ॥ ३७ ॥ श्मशानदूषितं यच्च यच्च चैत्यनिकास्थितम् । वासहीनं तथा म्लेच्छचाण्डालैश्वाधि वासितम् ॥ ३८ ॥ विवरान्तर्गतं वापि यच्च गोधाधिवासितम् । तद्गृहे न वसेत्कर्त्ता वसन्नपि न जीवति ॥ ३९ ॥ जो जलके स्राव ( बहाव ) से युक्त हो वा कुब्ज काणा बधिर हो ॥ ३५ ॥ जो उपघात ( लडाईसे मरण से युक्त हो, जो ब्रह्महत्यासे युक्त हो जो शालासे रहित हो वा शिखासे विहीन हो ।। ३६ ।। भित्तीके बाह्यके जो दारु काष्ठ हैं उनसे जो रुधिर संयुक्त हा, जो कांटोंसे युक्त चारों कोणों में हो ॥ ३७ ॥ जो श्मशानसे दूषित हो वा जो चैत्य ( चबूतरा ) पर स्थित हो, जो मनुष्यों के वाससे हीन हो, जिसमें म्लेच्छ चांडाल बसे हों ॥६८॥ जो घर छिद्रों के अन्तर्गत हो, जिसमें गोधाका निवास हो इस पूर्वोक्त सब प्रकारके घर में कर्ता न बसे और बसे तो न जीवै ॥ ३९ ॥ ना.टी. अ. १३ 4954
SR No.034186
Book TitleVishvakarmaprakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUnknown
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages204
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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