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________________ धू कोणोंमें तो विशेषकर न करे. अब बारहवें प्रकारको कहते हैं-मार्गशिर आदि तीन तीन महीनों में क्रमसे ॥२१॥ पूर्व दक्षिण पश्चिम और ral उत्तर दिशामें राहु वसता है. द्वारमें वहिका भय और स्तम्भको राइके मुखकी दिशामें गाडनेसे वंशका नाश होता है ॥ २२ ॥ अब तेरहवें धू प्रकारको कहते हैं--राक्षस (नेति ) कुबेर (उत्तर) अग्नि जल (पश्चिम) ईशान याम्य वायव्य इन दिशाओंमें आदित्यवारसे लेकर राहु वसता है, आठों दिशाओंके चक्रमें वह राहु गृहके द्वार और गमनके प्रारंभमें वर्जित है ॥ २३ ॥ अब चौदहवें प्रकारको कहते हैं-पहिला पूर्वदक्षिणतोयेशपौलस्त्याशा क्रमादगुः । द्वारे वह्निभयं प्रोक्तं स्तम्भ वंशविनाशनम् ॥ २२ ॥ अथ त्रयोदशः॥ रक्षःकुबेराग्नि जले च याम्ये वायव्यकाष्ठासु च भानुवरात् । वसेत्तमश्चाष्टसु दिक्षु चक्रे मुखे विवज्यों गमने गृहे च ॥ २३ ॥ अथ चतुर्दशः॥ ध्रुवन्त्वाचं गृहं प्रोक्तं सर्वद्वारविवार्जतम् । धान्ये पूर्वदिशि द्वारं दक्षिणे जयसंज्ञकम् ॥२४॥प्रारदक्षिणे नन्दगृहे पश्चिमे खरमेव च । प्राक्पश्चिमे तथा कान्ते प्रत्यग्याम्ये मनोरमे ॥२५॥ सुक्के चोत्तरे वज्य दुर्मुखे चोत्तरे तथा । प्रागुत्तरे क्रूरसंज्ञे विपदो दक्षिण तथा ॥२६॥ धनदे पश्चिमे वय क्षयं चोत्तरपश्चिमे । आक्रन्दे दक्षिणं त्याज्यं विपुले पूर्वमेव च ॥२७॥ गृह ध्रुव कहा है वह सब द्वारोंसे विवर्जित होता है, पूर्वदिशामें जिसका द्वार हो वह धान्य कहाता है और दक्षिणमें जिसका द्वार हो वह जयसंज्ञक ग्रह कहाता है ॥ २४ ॥ पूर्व दक्षिणमें द्वार होय तो नन्द गृह होता है, पश्चिममें होय तो खर होता है, पूर्व पश्चिममें होय तो कान्त, पश्चिम दक्षिणमें होय तो मनोरम होता है ॥ २५ ॥ उत्तरमें होय तो सुमुख होता है और उत्तरमें दुर्मुखनामका गृह वर्जित है और उत्तर | दक्षिणके क्रूरसंज्ञक गृहमें विपत्ति होती है ॥ २६ ॥ पश्चिम द्वार धनद गृहमें वर्जित है और उत्तर पश्चिममें गृह होय तो क्षय होता है आनन्द
SR No.034186
Book TitleVishvakarmaprakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUnknown
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages204
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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