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________________ ਜੇ ਤੇਰੇ श्रोत इंद्रिवडे परदेश गएला सार्थवाहनी स्त्री, चक्षुना रागवडे मथुरानो वाणियो, भ्राणने वशे ( गंध प्रिय ) राजपुत्र अने जीव्हाने रमे सोदाम राजा हणायो ॥ १४५ ॥ फार्सिदिए 5 || नहो सोमालिया महीपालो || एक विनिया ॥ किं पुरा जे पंचसु पसत्ता ॥ १४६ ॥ फरम इंद्रिवडे दुष्ट सोमालिकानो राजा नाश पाम्यो; अकेके विपये ए बधा नाश पाम्या तो जे पांचे इंद्रियां आसक्त होय तेनुं शुं कहे ॥ १४६ ॥ fater farai fress || निरविरको तर उत्तर जवोहं ॥ देवी दीव समागय || जानुअगा दुन्नि दिता ॥ ज्ञान जुयलं च नणियं च ॥ पाठांतरं ॥ १४७ ॥ विषयनी अपेक्षा करनारो माणस दुस्तर एवा भवसमूद्र प्रते पडे अने विषयथी निर्पेक्ष होय ते तरे; ( आ उपर ) रा द्विपनी देवीने मल्या वे भाइ १. जीनपालिन २ जीन रक्षित तेनां दृष्टांत जाणवां अथवा भाइनुं द्रष्टांत कां छे ॥ १४७ ॥ बलिया अवय रकंता || निरावयरका गया श्रविग्घेणं ॥ तन्हा पत्रयण सारे || निरावयस्केल दोयवं ॥ १४८ ॥ 2979754545459
SR No.034177
Book TitleMurkhshatakam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Hansraj Shravak
PublisherHiralal Hansraj Shravak
Publication Year1926
Total Pages154
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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