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________________ म०प०|| ॥५१ i ਰੋ-ਰੋ ਅਤੇ ਅਤੇ अस्संजमे वेरमणं ॥ नवदि विवेग करणं नवसमो ॥ अपरू जोग विरन ॥ खंती मुत्ती विवेगो ॥ ११२ ॥ असंयमने विषे विरतिपर्णु, उपधिनुं विवेककरण (त्याग करवुं ), उपशम अने अयोग्य व्यापारथी विरक्त थ, क्षमा, निलभता अने विवेक ॥ १५२ ॥ एयं पञ्चस्काणं ॥ श्रानर जण श्रावसु जावेल ॥ अमरं परिवन्नो | जंपतो पावइ समाहिं ॥ ११३ ॥ आ पच्चखाण रोगथी पीडाएलो माणस आपदाने विषे भाववडे अंगीकार करतो अने बोलतो समाधि पाये ।। ११३ ॥ जइ एसि निमित्तंमी ॥ पञ्चरका ना करे कालं ॥ तो पच्चरका | इमेल इक्केण विपणं ॥ ११४ ॥ ए निमित्तने विषे जो कोइ माणस पच्चखाण करीने काल करे तो आ एक पण पदवडे पच्चखखाण करावनुं ।। ११४ ॥ मम मंगल मरिहंता | सिद्धा साहू सुखं च धम्मो ॥ तेसिं सरणोवगढ़ ॥ साव वोसिरामिति ॥ ११५ ॥ "मुझे डिडिविरिविकिरी টि একট৬৯ডिড जिसे पयन्नो. |11| G3 11
SR No.034177
Book TitleMurkhshatakam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Hansraj Shravak
PublisherHiralal Hansraj Shravak
Publication Year1926
Total Pages154
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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