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________________ धर्मपरी० ॥ १४५ ॥ १४ ॥ लोक इसे कहे बुढो बेल, वरघोडे चढी थर बेल ॥ संतति काजे नहीं कोई डूषण, पुत्र यया पढी याशे भूषण ॥ ५ ॥ जोरे इज्य तणी एक बेटी, परणावी सुंदरी गुण पेटी ॥ सुंदरीने सोंपी घर नार, जयसेना करे धर्म व्यापार ॥ ६ ॥ सुंदरीने जन्म्यो सुत सार, वांकीयानां उघड्यां घरबार || पीहर सुंदरी पहोती जाम, बंधूसरी माता पूबे ताम ॥ ७ ॥ सुखणी तुं बे माही जाइ, शोक्य संकटमां केशो सुख माइ ॥ शोक उपर दीधी तुमे जाणी, पूब घर पीने पाणी ॥ ८ ॥ शोक मांही घाली सुख इच्छा, माथु मुंगावी नक्षत्रनी प्रीठा ॥ जयसेना मुज घणुं संतापे, मादारी बांग देखे तिहां कापे ॥ ए ॥ जंजेरी मूक्यो जरतार, दासीथी अवगणे अ पार ॥ बंधूसरी सुणी ए वचन्न, जंपे पुत्री धीरज धर मन्न ॥ १० ॥ जयसेनानुं जी - वित दरशुं, तुजने सुख याशे तेम करशुं ॥ एहवे एक जोगी तिहां श्रव्यो, बंधूसरी मन अधिक सोहाव्यो ॥ ११ ॥ उठी उजी थइ चरणे लागी, सरस निक्षा दीधी अनुरागी ॥ संतोष्यो श्रासन बेसारी, मुज घर निक्षा लेजो हितकारी ॥ १२ ॥ श्रावे ते दिन दिन श्रावासे, नवि रसवती पे उल्वासे ॥ जगते रीजयो जोगी बोले, ताहरे खंग 9 ॥ १४५
SR No.034172
Book TitleDharmpariksha Ras
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUnknown
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages336
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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