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________________ धर्मपरी खंग मो. उहा.. ॥११॥ एकदा पाटलीपुर जणी, विहार करंता एम ॥ श्राव्या आर्यसुहस्ती सूरि, परिवारे करी तेम ॥१॥ वनपालक दे वधामणी, संप्रति राजा नणी जाय ॥ सघलो साथ ले करी, वंदण आव्यो राय ॥२॥ द्विज श्राव्या सघला मली, सुणवाने उप-| देश ॥ गुरु कहे मूल ने धर्मनो, समकित मर्म विशेष ॥३॥ समकित विण शिव पद नहीं, सांजलजो सहु कोय ॥ श्राण सहित क्रिया अलप, बहु फलदायक होय yn४॥ जिनवरदेव सुसाधु गुरु, केवली जाषित धर्म ॥ सदहीए सुधां सहित, ए सम कितनो मर्म ॥ ५॥ तेणे कारण नवियण तुमे, वारी विकथा वात ॥ एक मना अवधारजो, समकितनां अवदात ॥६॥ ढाल पदेली. समुजपाल मुनिवर जयो-ए देशी. जंबुष्टीप नरत क्षेत्रमा, ए तो मगध देश मनोहार ॥सनेही॥राजग्रही नयरी राजा ॥१३१॥
SR No.034172
Book TitleDharmpariksha Ras
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUnknown
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages336
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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