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________________ धर्म प० ॥ १३० ॥ | लोक पमा घणी करे || श्रावे जात्राए हो जे नर नारके, तेदनां रोग संकट हरे ॥ ७ ॥ मयूरवाहनो हो स्वामी कार्तिकेयके, नाम कही लोक तीर्थे जाये ॥ वीरमती जगिनीथी होये जाबला बीजके, पर्व हवं ते दिनथी थाये ॥ ८ ॥ श्रीजिनवरदेवे हो कह्यो सकल विचारके, कुमार स्वामी कार्तिकेय तणो ॥ पवनवेग तुम हो ए जाएजो सत्यके, छापर ग्रंथ विस्तार घणो ॥ ए ॥ मिथ्यात्वीनां हो ए वचन असारके, मन मांही थकी ए टालजो ॥ जोला लोकज हो भूला जमे गमारके, जिनवर वचनज पालजो ॥ १० ॥ पवनवेगने हो आणंद जयो तामके, समकितधारी श्रावक थयो । मनोवेग मित्रने हो करी प्रणामके, विमान रची लेइ निज गामे गयो ॥ ११ ॥ मनोवेग कहे हो सांजलो मित्रके, श्रावकनो धर्म हुं कहुं ॥ श्रादि समकित हो सुधुं धरे चित्तके, सात व्यसनथी डूरे रधुं ॥ १२ ॥ मूल गुण हो पाले आज नेमके, कंदमूल सहु परिहरे ॥ व्रत पाले हो श्रावकनां वारके, सामायिक त्रण काल करे ॥ १३ ॥ तिथि पर्वणी हो पोसो करे शुद्धके, सचित वस्तु दूरे तजो ॥ रात्रिभोजन दो निवारो ब्रह्मचर्यके, पालो नव जेद शील जजो ॥ १४ ॥ गृह व्यापारे हो टालो पापारंजके, परिग्रह डूरे टालीए | विवाद यादे हो अनुमत नवि देयके, उदेस्यो थाहारने खंग ६ ॥ १३० ॥
SR No.034172
Book TitleDharmpariksha Ras
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUnknown
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages336
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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