SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 256
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ धर्मपरी० ॥ १२८ ॥ मुनिवर ए व्रतधार ॥ १ ॥ बन जाइ उगे तमे, मुज घर बेजो श्राहार ॥ निराधार हुं बेनमी, एक बार दी श्रधार ॥ २ ॥ जो वीरा तमे बोलशो, तो दुःख सुख कहुं वात ॥ पापी राजाए शुं कर्यु, हणीयो मारो जात ॥ ३ ॥ लघु वेशे संयम ग्रह्मो, मूकी | माय ने बाप ॥ राज रिद्धि सुख परिहरी, खम्यो परिसह ताप ॥४॥ मास पारणे पहोत्या मुज घरे, बाणे वींध्यो शुभ अंग ॥ वेदना व्यापी हशे घणी, दैव कीधो रंगनो जंग ॥ ५ ॥ ढाल दशमी. aa कलाणी जर घडो रे - ए देशी. एम विलपती कूटे हैयुं हे, शिर फोडे पाडे पोक || 'हाहाकार दुवो घणो हे, | मलीया नगरना लोक ॥ साजन सांजलो हे, कर्म तणी ए वात ॥ ए आंकणी ॥ १ ॥ महीपति पासे श्रावीयो दे, जाण्यो सहु वृत्तांत ॥ काम कीधो में पाकु ए, दुःख धरेरे एकांत ॥ सा० ॥ २ ॥ पापी मंत्रीए आज तो हे, कराव्यो वृथा पाप ॥ नरक निदान बंधावीयो हे, मुनि हत्यानो संताप ॥ सा० ॥ ३ ॥ व्यंतरीए तव जाणीयो हे, पुत्रने कष्ट अपार ॥ वेगे करी यावी तिहां हे, पूरव माय गणधार ॥ सा० ॥ ४ ॥ खंम ॥ १२८
SR No.034172
Book TitleDharmpariksha Ras
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUnknown
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages336
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy