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________________ धर्मपरी० १२३ ॥ जोजन करे, परलोके पूर्वज तृप्ति धरे ॥ १४ ॥ मातपिता सहु मुवा घर्षा, चोराशी लाख जोनिए जयां ॥ काल घणो दुवो बे तेह, न जाणीए अवतरीया केद ॥ १५ ॥ अर्ध पक्षना पंदर दीस, संवबरी बमासी प्रीस ॥ ब्राह्मण सगां जमे बे सहु, ते पामे पूरवज वली | बहु ॥ १६ ॥ पितर जवांतर पाम्या जेह, विप्र सगां जमतां पामे ते ॥ तो मुज माथु कोठां खाय, मारुं पेट कहो केम न नराय ॥ १७ ॥ बही ढाल खंग बहा तणी, एहवी वात ते द्विजवर सुणी ॥ रंग विजयनो शिष्य एम कहे, नेमविजयनी वात एम रहे ॥ १८ ॥ डदा. ब्राह्मण सहु हाथ जोकीया, बोले वचन अनाथ ॥ जीत्यो जीत्यो मुखथी वदे, दार्या श्रमे जगनाथ ॥ १ ॥ तुम साथै श्रमे बोलतां, नथी पुरवतो कोय ॥ साचा संघाते केम घटे, स्मृति पुराणे होय ॥ २ ॥ वाद जीती वनमां गया, मित्र बेहु आणंद || पवनवेग कहे जाइ सुणो, मिथ्या पुराण कह्यो वृंद ॥ ३ ॥ ते में खोटां जाणीयां, जिनवचननो नहीं जेद ॥ तेह कथा कहो निरमली, मिथ्या कथा | करो बेद ॥ ४ ॥ खंग ॥ १२३
SR No.034172
Book TitleDharmpariksha Ras
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUnknown
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages336
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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