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________________ धर्मपरी १९९४॥ के ॥ सु०॥ १५ ॥ पांचमा खम तणी कही, ढाल दशमी हो सुणजो नर नारी के ॥al रंगविजय शिष्य एम कहे, नेमविजय हो नित्य नित्य जयकारी के ॥सु० ॥५॥ मुहा. रामचंड सीता प्रते, कहे एक दिन वात ॥ निंदा करे जे लोक सहु, कलंक चमावे |नात ॥१॥ तेहनो साच करो तुमे, पावकमां द्यो पग ॥ निंदा न थाये नातमां, वातो श्रावे वग ॥२॥सीता कहे साचुं का, लोकापवाद न जाय ॥ साहेब करशे ते सही, थानारो ते थाय ॥३॥ त्रणसें हाथ खा खणी, जर्यो खेर अंगार ॥ रा राणा नेगा मल्या,श्राव्या जोवा नर नार ॥ ४॥ ना धोइ सीता सती, पहेरी उत्तम चीर॥ समरण करी साहेब तणो, संजार्यों इष्ट वीर ॥५॥ पावक मांही प्रवेश कर्यो, श्रगन फीटी थयो नीर ॥ अचरिज पाम्यां आदमी, धन धन एहनी धीर ॥६॥धन धन एहना शीलने, धन धन एहनी जाति ॥धन एहना मावित्रने, धन कुंवरी सुजाति ॥७॥ पावक मांहींथी नीकली, प्रगटी अगननी काल ॥ सती सती मुख सहु कहे, देव वाणी ततकाल ॥ ॥ पुष्पवृष्टि थश् तदा, जयजयकारनी वाण ॥ चरम शरीरी ते अजे, मुक्तिरूप निरवाण ॥ ए॥ ॥१९४
SR No.034172
Book TitleDharmpariksha Ras
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUnknown
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages336
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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