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________________ धर्मपरी ॥१०॥ श्राणीया ॥ बांधी समुप्रमा पाज, पाणी उपर तर्या पाहाणीया ॥४॥ राम लक्ष्मणना सेन, सागर पाजे उतारीया ॥ लंका जश् कीधुं युद्ध, रावण राक्षस मारीया ॥५॥ सख्य विसल्या काज, औषधिगिरि उचेली धरीय ॥ आण्यो लंकापुरी मांही, हनुमंत सेन बेगे करीय ॥ ६ ॥ रामायण वाल्मिक रिषि, जाषित ते मांही कां ॥ जो साचुं होय एह, मुज नाख्युं खोटें केम लद्यु ॥ ७॥ तव बोल्या द्विजराज, ए खोटुं केम जाखीए ॥ वली मनोवेग कहे वात, एक वयण तुम दाखीए ॥ ७॥ वानर पांचे हामिलेव, डुंगर मोटा उचेलीया ॥ लाव्या जोजन लाख, सागर बांध्यो ज्युं नेलीया ॥ ए ॥ तो लघु डुंगर तेह, शियाल बे केम नवि धरे ॥ वचन सुणी द्विजराज, सत्य सत्य कही गया घरे ॥ १० ॥ वाद जीपी वन मांही, श्राव्या पूर्वली परे ॥ मनोवेग कहे सुणो नाय, सुग्रीव हनुमंत वानर करे ॥११॥ विद्याधर ढुवा राम, रावण राक्षस नवि होये॥ खगपति तणो वंश चंग, पवनवेग तुमे सांजलो ॥१५॥ ढाल त्रीजी. राम पुरा बजारमां-ए देशी. कोशल देश अयोध्यापुरी, राज पाले नानि नरिंद ॥ तोरी बलीहारीरे श्रादि जिणंदनी॥ ॥१०३
SR No.034172
Book TitleDharmpariksha Ras
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUnknown
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages336
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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