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________________ धर्मपरी ते जग विख्यातहे ॥ स ॥ सा ॥१२॥मनोवेग बोल्यो गुणनाज, पवनवेग संबोधन में खन aकाजहे ॥ स० ॥ वेद पुराण कथा कही सारी, तुम पागल कही विस्तारीहे ॥ स० ॥ सा ॥ १३ ॥ पुत्र जणी कन्या विवाह, स्त्री संजोगे उपजे गर्न उदारहे ॥ स ॥ फणस थालिंगन नारी सार, शत बेटानो हुवो अवतारहे ॥ स ॥ सा ॥ १४ ॥ सुजमानो Kगर्न सांजली शब्द, नारायण हुंकारो लब्धहे ॥ स ॥ देमकीए जणी मंदोदरी नार, गर्न रह्या पितानो सारहे ॥ स० ॥ सा ॥ १५ ॥ सात सहस्र थयां ने वर्ष, पुत्र इंजजित रावण हर्ष ॥ स ॥ पारासुर जोगवतां नार, वेद व्यास सुत उपन्यो सारहे ॥ स॥ सा ॥ १६ ॥ काने कर्ण जएयो दातार, कमल सुगंधना गर्न अपारहे ॥ स॥ पूर्वापर ने विरोध अपार, तुम पुराण साचां न लगारहे ॥ स ॥ सा०॥ १७ ॥ बोलतां बहु लागे खेद, तुम पुराण नहीं साचां वेदहे ॥ स० ॥ सुधर्म श्राराधो जो वली तमे, जिन नाष्यु ते कहीए अमेहे ॥ स ॥ सा ॥१७॥ चोथा खमनी पाठमी ढाल, कहे ए| आगल वात रसालदे ॥ स० ॥ रंगविजयनो शिष्य एम जंपे, नेमविजय एम पयंपेहे ॥ स ॥ सा ॥ १७ ॥
SR No.034172
Book TitleDharmpariksha Ras
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUnknown
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages336
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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