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________________ धर्मपरी ॥६॥ केताकना गया प्राण ॥ दोहले थश्ने श्राणीयो, तापस थाश्रम ताण ॥ ५ ॥लिंग प्रतिष्ठा इषि करे, सुर नर मलीया ताम ॥ हवन होम मंत्री करी, योनि मांही व्यु जाम ॥६॥ कोटे बांधे नर केटला, राखे मस्तक मांहीं ॥ लिंगायत लोक हुवा घणा, लिंग बांध्यां बेहु बांहीं॥ातेह दिवस श्रादे करी,मूढ पूजे लिंग तेह॥श्रापे लिंग गली पड्यु, नांड विगोव्यो एह॥७॥ शंकर लघुपणुं पामीयो, लिंग पुराणे सार॥हरि अचं वा सुरपति, पर रमणी लघुपणुं धार ॥ ए॥मनोवेग कहे सांजलो, पवनवेग तुमे श्राज॥ सुर सघलाना गुण कह्या, जिणे पामीए बहु लाज ॥१०॥ परनारी जे जोगवे, तेहने मोटा पाप ॥ उरगति ःख पामे घणां, नरके लहे संताप ॥११॥परनारीजे नोगवे, दोषवंत ते देव ॥ पूज्यपणुं तेने नहीं,किम कीजे तस सेव ॥१२॥ निष्कलंक जिन जाणजो, दोष नहींय लगार ॥ पर तारक श्रापे तरे, देव जाणो ते सार ॥ १३॥ पवनवेग तुमे सांजलो, जैनशास्त्र विचार ॥शंकर ब्रह्मा उत्पत्ति कहुँ, सत्य वचन जिन सार ॥१४॥ ___ढाल जंगणीशमी... उनी बावाजीरी पोल, देवर थाणे श्रावीयोरे लाल-ए देशी. भरत क्षेत्र मांही सार, गंधार देश रलीधामणोरे लाल ॥ वसीपुर नगर उदार,
SR No.034172
Book TitleDharmpariksha Ras
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUnknown
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages336
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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