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________________ [ द्रव्यानुभव - रत्नाकर । ४८ ] अर्थात् स्वर्गादि फलको देकर सुख और वैभवसे आनन्दमें रखने बाला हैं, ऐसा शब्द प्रमाण अर्थात् शास्त्रोंसे मालूम होता हैं, और लौकिकमें प्रत्यक्ष देखने में आते हैं, जो कि चक्रवर्ती, बलदेव, बासुदेव, राजा आदि सेठ साहूकार नाना प्रकारके सुख भोगते हुये दीखते हैं सो धर्मका 'फल है। और उस स्वर्गादि देवलोक में जिसको वैष्णव लोग विष्णुलोक, गोलोक, सत्यलोक, बैकुण्ठ, आदि करके कथन करते हैं, उन लोकों में पहुंचना और रहना वैभवपन सो तो धर्मका काम है, परन्तु उस ज़गह स्थिर करना यह काम अधर्मस्तिकायका है, इसलिये उस जगह भी अधर्मस्तिकाय द्रव्य है, और जो उस जगह अधर्मं अर्थात् पाप रूप कर्म को मानेतो सुखके बदले दुःख होना चाहिये सो दुखतो उस जगह हैं नहीं, इसलिये हे भोले भाई तैनेजो धर्म, अधर्म जीवका कर्त्तव्य मान कर धर्म द्रव्य और अधर्म द्रव्यको निषेध किया सो तेरा निषेध करना न बना, क्योंकि तेरा धर्म, अधर्म तो सुख दुखके देनेवाला है, और चलने में अथवा स्थिर करन में तेरा धर्म, अधर्म कर्तव्य नहीं, किन्तु श्री वीतराग सर्वज्ञ देवने जो अपने ज्ञानमें देखाकि जीव और पुद्गलके वास्ते गति अर्थात् चलना और स्थिति अर्थात् स्थिर करना धर्मस्तिकाय अधर्मंस्तिकाय काही गुण है, इसलिये धर्म द्रव्य अधर्म द्रव्य सिद्ध हुआ । ४ कालद्रव्य । अब चौथा काल द्रव्यका वर्णन करते हैं कि निश्चय नय अर्थात् निस्सन्देह शुद्ध व्यवहारसे तो काल द्रव्य मुख्य बृति से हैं नहीं; किन्तु अशुद्ध व्यवहार उपचारले असद्भूत नय की अपेक्षासे और मन्द जिज्ञासुको समझानेके वास्ते और लौकिक प्रचलित सूर्यकी गति व्यवहार से कालको जुदा द्रव्य कथन शास्त्रोंमें किया है, इसलिए हम भी इसकाल द्रव्यको चौथा अजीव द्रव्य प्रतिपादन करते हैं; काल नाम उसका है कि नवेको उत्पादन करे और जीर्णको विनाश करे, क्योंकि देखो सर्व्व पुद्गलके विषय नवीन पना अथवा जीर्णपना होनेका Scanned by CamScanner
SR No.034164
Book TitleDravyanubhav Ratnakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChidanand Maharaj
PublisherJamnalal Kothari
Publication Year1978
Total Pages240
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size114 MB
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