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________________ [ द्रव्यानुभव-रत्नाकर। १०] और जो अशुद्ध ब्यवहारके भेद चार कहे थे उसमें शभ , तो उसको कहते हैं कि, जो पुण्यादिक की क्रिया करता है और जिसको कोई बुरा नहीं कहते, बल्कि अन्य मतमें भी जो लोग दान, व्रत, उपवास, वा नियम, धर्मादिक करते हैं, सो भी स व्यवहारमें किसी नयकी अपेक्षासे गिना जायगा। अशुभ व्यवहारमें जो अशुभ क्रिया अर्थात् चोरी करना, जुआ खेलना, मांस खाना. मदिरा पीना, जीव हिंसादिक अनेक व्यापार हैं, जिनको लौकिकमें बुरा कहे और परलोकमें खोटा फल मिले, उसको अशुभ व्यवहार कहते हैं। उपचरित व्यवहार उसको कहते हैं कि जो उपचारसे पर बस्तुको अपनी करके मान लेना, जैसे स्त्री, पुत्र, धन, धान्यादि अपनी आत्मा तथा शरीर आदिक से भिन्न है और दुःख सुखका बटाने वाला भी नहीं, तो भी जीव अपना करके मानता हैं। इसलिये इसको उपचरित व्यवहार कहते हैं, यद्यपि वह बस्तु जीवात्मा शरीर से जुदी है तो भी अपना करके मानलिया हैं। इसलिये वह उपचरित व्यवहार है। अब अनुपचरित व्यवहारको कहते हैं कि, यद्यपि शरीर आदिक पुद्गलीक बस्तु आत्मासे भिन्न है, तो भी इसको अज्ञान दशाके बलसे संयोग सम्बन्ध तदात्मभाव लौलीभूतपनेसे जीव अपना करके मानता हैं। यद्यपि यह शरीरादिक स्त्री, पुत्र, धनधान्यका तरह अलग नहीं हैं, तथापि ज्ञानदृष्टिसे विचार करे तो यह शरीर आदि आत्मासे भिन्न है और पुत्र कलत्र आदिकसे भीभिन्न है । सा इस भिन्न शरीरादिमें जो ब्यवहार करना उसका नाम अनुप चरित व्यवहार है। इसरीतिसे जिन आगम अनुसारसे निश्चय और व्य वहारका भेद कहा। सो हे भव्य प्राणियों जिन आगम संयुक्त निश्चय व्यवहारको समझकर और हठकदाग्रहको छोड़कर अपनी आत्माका कल्याण करो। क्योंकि देखो "श्रीउत्तराघयन" सत्रमें कहा है कि, मनुष्यपना मिलना बहुत दुष्कर (मुश्किल ) है। और उस जगह दस दृष्टान्त भी इसीके ऊपर दिखाये हैं। कदाचित् मनुष्यपना मिल भी तो आर्य्य देश मिलना बहुत कठिन है। कदाचित् आर्य दश Scanned by CamScanner
SR No.034164
Book TitleDravyanubhav Ratnakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChidanand Maharaj
PublisherJamnalal Kothari
Publication Year1978
Total Pages240
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size114 MB
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