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________________ [द्रव्यानुभव-रक्षाकर। १७६] पारमार्थिक । प्रथम सांव्यवहारिकका वर्णन करते हैं कि इन्द्रियों से होय, दूसरा मन इन्द्रियसे होय । सो इन्द्रियसे ज्ञान होते के चार कारण ( हेतु ) है सो वे चारों हेतु एक २ से अतिउत्तम है सो अब उन चारों कारणोंका नाम कहतेहैं कि एक तो अवग्रह, दसरा तीसरा अवाय, चौथा धारणा। यदुक्तं प्रमाणनयतत्त्वालोकालंकारे "एतद्वितयमप्यवग्रहहावायधारणाभेदादेकैकशश्चतुर्विकल्पं" इसका वि. शेष विस्तार और लक्षण स्याद्वादरत्नाकरावतारिका अथवा स्याद्वादरत्नाकर आदिक जो इस प्रथकी टीकाएं हैं, उनमें है। चारों हेतु सर्व इन्द्रियोंके साथ जोडना. इसरीतिसे इन्द्रिय-प्रत्यक्ष-ज्ञानके भेद हैं। इनक जिनमतमें व्यवहारिक प्रत्यक्षज्ञान कहते हैं । अब दूसरा पारमार्थिक ज्ञानो है। सो इन्द्रियके बिना केवल आत्मा-मात्रसे प्रत्यक्ष होता है इसीको अतीन्द्रिय-प्रत्यक्ष ज्ञान कहते हैं, क्योंकि जिसमें इन्द्रियआदिककी अपेक्षा नहीं है उसका नाम अतीन्द्रिय प्रत्यक्ष ज्ञान है । उसके भी दो भेद हैं, एक तो देशप्रत्यक्ष दूसरासर्वप्रत्यक्षा देशप्रत्यक्षकेभी दो भेद हैं, एकतो अवधिशान दूसरा मनपर्यव ज्ञान । अवधिज्ञानके दो भेद हैं, एक तो कर्मक्षय होनेसे, दूसरा स्वभावसे ।कर्मक्षयसे होनेवाले अवधिज्ञानके जघन्य, मध्यम, उत्कृष्ट करके असंख्यात भेद होते हैं, और कर्मग्रन्थादिकमें छः प्रकारके मुख्य भेद लिखे भी हैं । और जो स्वाभाविक अवधिज्ञान है, सो देवगति और नारकगतिमें होता है। देवलोकमें जिस २ पुण्य प्रकृतिसे जिस२ देवलोकमें जो२ देवता उत्पन्न होता है उसीके माफिक विशेष २ उत्तम अवधिज्ञान होता है, और नारको में जिस २ पापके उदयसे जिस २ नारकीमें जाता है तिस २ पापके उदयसे मलिन २ अवधिज्ञान उत्पन्न होता है। इसरीतिसे इस अवधिशान देशप्रत्यक्षके अनेक भेद हैं। दूसरा जो देशप्रत्यक्ष मनपर्यव ज्ञान है, वह विशेषकरके संयमकी शुद्धि और चारित्र के पालनेसे जब कर्मक्षय होता है तब ही उत्पन्न होता है। उस मनपयव शान के दो भेद हैं, एक तो विपुलमति, दूसरा ऋजुमति । अब इस जगह कोई ऐसी शंका करे कि मनपर्यवज्ञान किसको कहते हैं ? उसका सन्देह दूर करने के वास्ते इस मनपर्यवज्ञानका आशय कहते हैं कि ढ़ाई दीपमें जो Scanned by CamScanner
SR No.034164
Book TitleDravyanubhav Ratnakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChidanand Maharaj
PublisherJamnalal Kothari
Publication Year1978
Total Pages240
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size114 MB
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