SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 205
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ [ द्रव्यानुभव-रत्नाकर १७४ ] मनको इन्द्रिय नहीं मानी है, तिनके मतमें इन्द्रियजन्यता प्रत्यक्ष शाका लक्षण नहीं, किन्तु विषय-चेतनका वृत्ति-चेतनसे अभेद हो प्रत्यक्ष ज्ञान का लक्षण है। इस रीति से इसके प्रत्यक्ष ज्ञानमें अनेक तरहके आपस में झगड़े हैं। जो इनके ग्रन्थानुसार लिखाऊँ तो ग्रन्थ बहुत बढ़ जायगा, इस भय से नहीं लिखाता । अब इस जगह बुद्धिमानोंको विचार करना चाहिये कि, न्यायमत में कोई तो इन्द्रियको करण मानता है और कोई कारण मानता है, और कोई सन्निकर्षादिकको प्रमाण मानता है । जब इसरीति से आपस में ही इनके विवाद चल रहे हैं तो जिज्ञासुकों क्योंकर इनके कहने में विश्वास होय ? क्योंकि जिनके मनमें आप ही संदेह बना हुआ है वे दूसरेका सन्देह क्योंकर दूर करेंगे ? अलबत्त, इनके इस विचार के ऊपर बुद्धिमान लोग विचार करेंगे तो डूंगरको खोदना और चूहे को निकालना ही नैयायिकके शास्त्रोंके अवगाहनका फल मालूम होगा । इस रीति से वेदान्तमतवालेके प्रत्यक्षके कथनमें भी जुदे २ आचार्यों की जुदी २ प्रक्रिया है । इसलिये इनका भी प्रत्यक्ष प्रमाण कहना ठीक नहीं। इन मतवालोंके प्रत्यक्ष प्रमाणको देखकर मेरेको · एक मसल याद आती है कि रागाका भाई प्रागा । सोही दिखाते हैं कि जैसे नैयायिकने जिज्ञासु को भ्रमंजालमें गेरनेके वास्ते किसी जगह चार सम्बन्ध और किसी जगह तीन सम्बन्ध लगा कर केवल तोत का झाड़ बना लिया है। समवाय सम्बन्ध, समवेत - समवाय सम्बन्ध, विशेषणता सम्बन्ध, संयोग सम्बन्ध लगाकर प्रत्यक्ष ज्ञानका वर्णन तो किया ; किन्तु जिज्ञासुको उल्टा भ्रमज्ञान में गेर दिया ; प्रत्यक्ष प्रमाणका कुछ निर्णय न किया; केवल बाह्यद्दृष्टिको देखकर प्रत्यक्ष ज्ञानमें लिया; आत्मज्ञानका किंचित् भी वर्णन न किया; इसलिये नैयायिककी पोल देख वेदान्तीने अविद्याका झगड़ा उठा दिया । सो वेदान्तियोंने भी केवल अविद्याको मान कर अन्तःकरणसे ही प्रत्यक्ष ज्ञानका वर्णन किया, उस ब्रह्मरूप आत्माके प्रत्यक्ष ज्ञानका तो किञ्चित् भी वर्णन न किया। और जो कितने ही वेदान्ती मन Scanned by CamScanner
SR No.034164
Book TitleDravyanubhav Ratnakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChidanand Maharaj
PublisherJamnalal Kothari
Publication Year1978
Total Pages240
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size114 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy