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________________ द्रव्यानुभव-रनाकर ।] जब इनके विशेषण और विशेष्य ज्ञानके. भेद पूर्वक न्याय मतके जानकी समाप्तिके अर्थ इनका नवीन और प्राचीन रोतिसे के झगड़े किञ्चित् दिखाते हैं कि इस रीतिसे जो विशिष्ट का हेतु विशेषण ज्ञान हैं सो विशेषणका ज्ञान किसी जगह नोसति रूप है, किसी जगह निर्विकल्प है और किसी जगह विशिष्ट ज्ञान ही विशेषण-विशेष्य है । पहले विशेषण मात्रले इन्द्रियका सम्बन्ध होता है। तिस जगह विशेषण मात्रसे इन्दिय सम्बध जन्य है। सो भी विशिष्ट प्रत्यक्ष ही है । क्योंकि देखो-जिस जगह पुरुषके बिना दण्डसे इंद्रिय सम्बध होता है और उत्तर क्षणमें पुरुषसे सम्बन्ध होता है, तिस जगह दण्ड रूप विशेषणका ही ज्ञान उत्पन्न होता है तैसे ही उत्तरक्षण में दण्डी पुरुष है यह विशिष्टका शान उत्पन्न होता है। अथवा घट है यह प्रथम जो विशिष्ट ज्ञान तिससे पूर्व घटत्व रूप विशेषणका इंद्रिय सम्बन्धसे निर्विकल्प ज्ञान होता है। उत्तरक्षणमें घट है यह घटत्व-विशिष्ट घट ज्ञान होता है। जिस इंद्रिय सम्बंधसे घटत्व का सविकल्प ज्ञान होता है तिसही इद्रिय सबंधले घटत्व-विशिष्ट घटत्वके निर्विकल्प ज्ञानमें इदिय करण है, इद्रिय का संयुक्त-समवाय सम्बन्ध व्यापार है और घटत्व-विशिष्ट घटके सविकल्प शानमें इन्दिय का संयुक्त-समवाय संबंध करण है । ओर निर्विकल्प शान व्यापार है। ... इस रीतिसे किसी आधुनिक प्राचीन नैयायिकने निर्विकल्प और सविकल्प ज्ञानमें करणका भेद कहा है, सो न्याय सम्पदायसे विरुद्ध है, क्योंकि व्यापारवाला असाधारण कारणको करण कहते हैं। और इस मतमें प्रत्यक्ष ज्ञानका करण होनेसे इदिय को ही प्रत्यक्ष प्रमाण कहते हैं। और आधुनिक नैयायिकोंकी रीतिसे तो सविकल्प ज्ञानका करण होनेसे इद्रिय के संबंध को भी प्रमाण कहना चाहिये, परन्तु सम्पदाय वाले सबंधको प्रमाण कहते ही नही हैं। इसलिये दोनों प्रत्यसमानके इन्द्रिय ही करण है। इसलिये प्रत्यक्ष प्रमाण है। निर्वि पशानमें इन्द्रियका सम्बन्ध मात्र व्यापार है और सविकल्प शानमें इन्द्रियका सम्बन्ध और निर्विकल्पशाम दो. व्यापार है, और दोनों Scanned by CamScanner
SR No.034164
Book TitleDravyanubhav Ratnakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChidanand Maharaj
PublisherJamnalal Kothari
Publication Year1978
Total Pages240
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size114 MB
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