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________________ [ १४३ भ्यानुभव - रत्नाकर । ] I प्रमाका करण होय सो प्रमाण है। प्रत्यक्ष प्रमाके करण नेत्र आदिक इन्द्रियां हैं इस लिए नेत्र आदिक इन्द्रियोंकों प्रत्यक्ष प्रमाण कहते हैं। व्यापार'वाला जो असाधारण कारण होय सो करण है। ईश्वर और उसके ज्ञान, इच्छा, कृति, दिशा, काल, अगष्ट, प्रागभाव, प्रतिबन्धकाभाव ये नव साधारण कारण है, इनसे जो भिन्न, सो असाधारण कारण है असाधारण कारण भी दो प्रकारका हैं। एक तो व्यापारवाला है, दूसरा व्यापार करके रहित हैं । कारणसे ऊपजके कार्य्यको ऊपजावे सो व्यापार है। क्योंकि देखो, जैसे कपाल घटका कारण है और कपाल दोका संयोग भी घटका कारण है तिस जगह कपालकी कारणतामें संयोग व्यापार है, क्योंकि कपाल संयोग कपालसे ऊपजे हैं और कपालके कार्य घटको ऊपजावे हैं । इस लिये संयोग रूप व्यापारवाला कारण कपाल है । और जो कार्थ्यको किसी रीतिसे उत्पन्न करें नहीं, किन्तु आप ही उत्पन्न होवे सो व्यापार करके रहित कारण है। ईश्वर आदि नव साधारण कारणोंसे भिन्न व्यापारवाला कारण कपाल है । इस लिये घटका -कपाल कारण है । और कपालका संयोग असाधारण तो है परन्तु व्यापारवाला नहीं, इस लिये करण नहीं हैं, केवल घटका कारण ही है। तैसे प्रत्यक्ष प्रमाके नेत्रादिक इन्द्रियां करण हैं, क्योंकि नेत्रादिक इन्द्रियोंका अपने २ विषय से सम्बन्ध नहीं होवे तो प्रत्यक्ष प्रमा होय नहीं; इन्द्रिय और विषयका सम्बन्ध जब होय तब ही प्रत्यक्ष प्रमा होती है। इस लिये इन्द्रिय और उसका विषयका सम्बन्ध इन्द्रियसे उत्पन्न होकर प्रत्यक्ष प्रमाको उत्पन्न करें हैं, सो व्यापार है । इसलिये सम्बन्ध रूप व्यापारवाले प्रत्यक्ष प्रमा असाधारण कारण इन्द्रियाँ हैं। इस रीति से इन्द्रियको प्रत्यक्ष प्रमाण कहते हैं और इन्द्रिय-जन्य यथार्थ ज्ञानको न्याय मतमें प्रत्यक्ष प्रमा कही है। प्रत्यक्ष प्रमाके करण ६ इन्द्रियाँ है, इस लिये प्रत्यक्ष प्रमा के छः भेद हैं। सोही दिखाते हैं-श्रोत्र, त्वचा (त्वक्), नेत्र, रसना, घाण (नासिका), मन ये ६ इन्द्रियाँ है । श्रोत्र जन्य यथार्थ ज्ञानको क्षेत्र प्रमा कहते हैं, क्वा-इन्द्रिय-जन्य यथार्थ ज्ञानकों त्वचा प्रमा कहते हैं, नेत्र- इन्द्रियजन्य यथार्थ ज्ञानको चाक्षुष प्रमा कहते हैं, रसना इन्द्रिय-जन्य यथार्थ I Scanned by CamScanner
SR No.034164
Book TitleDravyanubhav Ratnakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChidanand Maharaj
PublisherJamnalal Kothari
Publication Year1978
Total Pages240
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size114 MB
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